वी.एस. डबीर
प्रसतुति: माधव केलकर

कई बार साधारण-सी लगने वाली जानकारी को भी प्रयोगों की कसौटी पर कसने की कोशिश की जाए तो मालूम हो जाएगा कि गइराई में जाने पर काफी पेंच नज़र आते हैं।

मैं अपने नाती की फीस जमा करवाने उसके स्कूल गया था। वहां एक कक्षा में कुछ बच्‍चे प्रयोग कर रहे थे और टीचर एक बच्‍चे को छाड़ी से मार रहा था। पूछने पर पता चला कि बच्‍चे के हाथ से प्रयोग करते हुए चुंबक ज़मीन पर गिर गया था। और टीचर का कहना था कि ज़मीन पर चुंबक गिरने से उसका चुंबकीय गुण नष्‍ट हो जाता है।  मुझे यह बात थोड़ी भी नहीं जंची- एक बार चुंबक ज़मीन पर गिरने से उसका चुंबकीय गुण कैसे खराब हो सकता है।

मैंने घर पहुंचकर अपने नाती से पूछा- ‘’क्‍यों भाई चुंबक का चुंबकत्‍व कैसे नष्‍ट हो जाता है?’’ नाती ने बताया – ‘’यदि चुंबक को गर्म किया जाए, या पीटा जाए, या दो चुंबकों के समान ध्रुवों का सटाकर रखा जाए तो चुंबक का चुंबकत्‍व नष्‍ट हो जाता है।‘’ (इसमें चुंबक के ज़मीन पर गिरने वाली बात नहीं थी लेकिन शायद पीटने वाली बात इससे जुड़ सकती है।) मैंने अपने नाती से पूछा- ‘’तुम किताबों में लिखी इन बातों से सहमत ?हो’’ उसने कंधे उचकाकर लापरवाही से कहा- ‘’किताब में लिखा है तो ऐसा होता ही होगा।‘’ अब मुझे लगने लगा कि स्‍कूली किताब में लिखी इन बातों की जांच करना चाहिए कि क्‍या किताब में लिखी और स्‍कूल मास्‍टर की कही बातें सच हैं?

मैं बाजार से चार-पांच चुंबक खरीदकर लाया। फिर हम दोनों किताब में लिखी बातों की जांच करेगे। हमने सबसे पहले देखा सभी चुंबक अपने सिरों (ध्रुवों) से 3 सेमी. दूर रखी  ऑलपिनों को आसानी से अपनी ओर खींच लेत थे।

हमने पहले चुंबक को जलते अलाव में डाल दिया और लगभग 20 मिनट उसे आग में पड़े रहने दिया। हमने ऐसा इसलिए किया क्‍योंकि किताब मे लिखा है कि चुंबक को गर्म करने से उसका चुंबकत्‍व नष्‍ट हो जाता है। 20 मिनट बाद हमने उस चुंबक को आग से बाहर निकाला, ठंडा होने दिया और फि‍र उसे मेज़ पर रखकर ऑलपिन सके दोनों सिरों के पास लाए। वह चुंबक अभी भी 3 सेमी. दूर रखी पिनों को आसानी से अपनी ओर खींच रहा था। हमें लगा चुंबक का चुंबकत्‍व नष्‍ट होना तो दूर रहा कम भी नहीं हुआ है। हमने फिर एक बार 10 मिनट उसे अलाव में रखा लेकिन परिणाम वही आए तो हमें लगा शायद दो-चार-दस घंटे तक लगातार गर्म करने पर चुंबकत्‍व नष्‍ट होता होगा, 20-30 मिनट में तो नहीं।

दूसरे चुंबक को हमने ज़मीन पर गिराने का निश्‍चय किया। हमने चुंबक को हवा में लगभग ढाई फुट की ऊंचाई पर पकड़ा। चुंबक का उत्‍तरी ध्रुव ज़मीन की ओर था। फिर चुंबक को छोड़ा जिससे उत्‍तरी ध्रुव ज़मीन से टकराया। ऐसा 100 बार किया। फिर चुंबक का दक्षिणी ध्रुव ज़मीन की ओर करके चुंबक को 100 बार ज़मीन पर गिराया। यानी वह चुंबक ज़मीन पर कुल 200 बार गिराया गया। अब चुंबक को फिर से मेज़ पर रखकर जांच की तो देख चुंबक अभी भी 3 सेमी. दूर रखी ऑलपिन को आसानी से अपनी ओर खींच रहा था। (काश, सकूल का वह शिक्षक भी हमारे साथ होता और यह सब देख पाता।)

मेरे नाती ने मुझसे कहा- ‘’दादाजी किताब में तो चुंबक को पीटने की बात लिखी है, हमने तो सिर्फ चुंबक को ज़मीन पर गिराया ही है।‘’ फिर वह दौड़कर लोहे की हथौड़ी ले आया। मैंने उसे समझाया हमें चुंबक को तोड़ना नहीं है। भगवानघर से घंटा बजाने वाली लकड़ी की हथौड़ी ले आओ। हमने लकड़ी की हथौड़ी से चुंबक के दानो सिरों (ध्रुवों) को 100-100 बार पीटा। हथौड़ी इतनी ही ज़ोर से मारी कि चुंबक न टूटे। पीटने का काम करके जांच की तो फिर वही ढांक के तीन पात। चुंबक अभी भी 3 सेमी. दूरी पर रखी ऑलपिन को आसानी से अपनी ओर खींच रहा था।

बस चुंबक एक जांच और बच कई थी। हमने दो चुंबक लिए (जिन पर अभी तक प्रयोग नहीं किए थे। फिर एक चुंबक के उत्‍तरी ध्रुव पर दूसरे चुंबक का उत्‍तरी ध्रुव रखने की कोशिश की लेकिन दोनो चुंबक एक-दूसरे को दूर फेंक देते थे। हमने दोनों चुंबकों के उत्‍तरी-उत्‍तरी और दक्षिणी-दक्षिणी ध्रुवों को सटाकर रबर बैंड की मदद से बांध दिया। और उन्हें सुरक्षित जगह पर रख दिया। लगभग दो दिनों बाद (यानी 48 घंटों बाद) हमने धीरे से रबर बैंड खोला। जैसे ही रबर बैंड खुला दोनों चुंबकों ने एक दूसरे को दूर-दूर फेंका। यानी दोनों ध्रुव पहले की तरह ही थे। दानों चुंबक अभी भी 3 सेमी. दूर रखी ऑलपिन का आसानी से अपनी ओर खींच रहे थे।

तीनों प्रयोगों के बाद हमें समझ में आया कि चुंबक का चुंबकत्‍व इतनी आसानी से खत्‍म नहीं हाता जैसा कि आमतौर पर हम समझते हैं। मैंने स्‍कूल के शिक्षक को अपने प्रयोग अवलोकनों के बारे में बताया और उससे कहा कि चुंबक के एक बार ज़मीन पर गिरने से उसका चुंबकत्‍व नष्‍ट नहीं होता। हां, गिरकर वह टूट ज़रूर सकता है।

शिक्षक ने लापरवाही से कहा- ‘’आप अपने अवलोकन के आधार पर यह कह सकते हैं लेकिन इससे किताबों में लिखी बात झूठ थोड़े साबित होगी। पाठयपुस्‍तकें बनाने वाले भी पढ़े-लिखे विद्वान होते होंगे।‘’

शिक्षक की बात सुनकर मैं थोड़ा हताश हुआ कि यह व्‍यक्ति तो पाठयपुस्‍तकों में लिखी बातों को वेद-वाक्‍य समझता है। प्रयोग करके क्‍यों नहीं देख लेता कि चु्रबक का चुंबकत्‍व कैसे नष्‍ट होता है?


वी. एस. उबीर: सेवानिवृत, जिज्ञासु वृद्ध हैं। फिलहाल जबलपुर में अस्‍थाई निवास।
माधव केलकर: संदर्भ में कार्यरत।

इस लेख को पढ़ने के बाद हो सकता है ऐसी धारणा बनने लगे कि चुंबकत्‍व पर तापमान का खास असर नहीं पढ़ता। लेकिन ऐसा नहीं है। लौह-चुंबकीय (फेरोमेग्‍नेटिक) पदार्थों में चुंबकत्‍व पर तापमान का असर एक विशेष तापमान के बाद ह पड़ता है जिसे ‘क्‍यूरी तापमान’ कहते हैं। क्‍यूरी तापमान पर पहुंचने के बाद ही फेरोमेग्‍नेटिक पदार्थों का चुंबकत्‍व एकदम से कम होने लगता है। अलग-अलग पदार्थों के लिए क्‍यूरी तापमान भी फर्क होता है जैसे लोहे के लिए 770 डिग्री सेंटी ग्रेड, तो कोबाल्‍ट के लिए 340 डिग्री सेंटीग्रेड।

जहां तक चुंबक को पटकरकर चुंबकत्‍व नष्‍ट करने का सवाल है- आमतौर पर स्‍थाई चुंबक ऐसे पदार्थो से बनाए जाते हैं जिनका चुंबकत्‍व आसानी से नष्‍ट नहीं होता। इसलिए इन्‍हें कई बार पटकने पर भी चुंबकत्‍व पर विशेष असर नहीं पड़ता। परन्‍तु अस्‍थाई चुंबक पर पटकने का तीव्र असर पड़ता है क्‍योंकि उनके उपयोग के हिसाब से यह ज़यरी है कि उनका चुबंकत्‍व तुरन्‍त नष्‍ट हो या कम हो जाए। उदाहरण के लिए ‘कॉल बेल’ में इस्‍तेमाल होने होने वाला लोहे का टुकड़ा यदि स्‍थाई चुंबक बन जाए तो कॉल बेल काम नहीं करेगी।

—संपादक मंडल