धूमकेतुओं का टेलिस्कोप से आकाश में खोजा जाना और देखना कोई अनोखी बात नहीं है। लेकिन ऐसा कम ही होता है जब कोई धूमकेतु इतना चमके कि नंगी आंखों से उसे देखा जा सके। और इस बार तो केवल एक साल के अंतराल में दूसरा इतना चमकदार धूमकेतु आकाश में है।
पिछले साल मार्च-अप्रैल में जो धूमकेतु आकाश में था उसका नाम था हयाकुतोके। इस बार जो दिख रहा है उसका नाम है ‘हेल-बॉप’। इसे जुलाई 1995 में क ह रात में दो खोलशास्त्रियों ने अलग-अलग जगह से आकाश निहारते हुए खोजा था। दोनों ही अमेरिकी हैं। एक का नाम है एलन हेल और दूसरे हैं थॅामस बॉप।
वैज्ञानिक बता रहे हैं कि पिछले दो दशकों में आकाश में जितने भी पिंड देखे गए हैं उनमें से हेल-बॉप सबसे चमकदार है। धूमकेतु पहले पहल आकाश में एक धुंधले से बिन्दु के रूप में दिखाई पढ़ना शुरू करते हैं। फिर जैसे जैसे ये सूर्य के पास, और पास आते जाते हैं ये धब्बा चौड़ा होता जाता है। और फिर एक दिन इसके साथ धुंध की एक पूंछ–सी दिखने लगती है। और यह जब वापस लौटता है तो पहले पूंछ छोटी होती जाती है, फिर एक धुंधला धब्बा बचता है और फिर धीरे धीरे वह भी आंखों से ओझल हो जाता है।
धूमकेतु का पथ
धूमकेतु दीर्घवृत्तीय कक्षा में घूमते हैं। अपनी कक्षा में घूमते हुए ये यूर्य के पास से गुज़रते हुए मुड़ते हैं; दूर क्रमश: और दूर जाते हैं, फिर दुबारा मुड़कर सूर्य की ओर अपनी यात्रा शुरू कर देते हैं। इस तरह किसी भी धूमकेत की कक्षा का एक बिन्दु वह है जब वह सूर्य के सबसे पास होगा और दूसरा जब वह सूर्य से सबसे अधिक दूर होगा। हेल- बॉप एक अप्रैल 1997 को सूर्य के सबसे पास वाल बिन्दु पर होगा और इसका दूर वाला बिन्दु सौरमंडल के सबसे दूर के ग्रह प्लूटो की कक्षा में भी करीब दस गुना दूर स्थित है। हेल-बॉप को यह दूरी तय करने में तीन हज़ार साल लगते हैं। यानी इतने सालों में वो एक बार सूर्य के पास आता है। अब ज़रा सोचिए कि हमारे पूर्वजों में से किसने से देखा होगा और आने वाली पीढ़ी के कौन लोग इसे देख पाएंगे।
क्या है धूमकेतु
जब धूमकेतु सूर्य से बहुत दूर होता है उस समय यह सिर्फ बर्फ के रूप में जमा पदार्थों शायद पानी, मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइ, हाइड्रोजन सायनाइड आदि का एक गोला होता है, जिसमें धूल और चट्टानों के टुकड़े धंसे रहते हैं। इस गोले का केंद्र ठोस चट्टानों से मिलकर भी बना हो सकता है या फिर ऐसा भी हो सकता है कि यह पूरा का पूरा इस पार से उस पार तक बर्फ में धंसी धूल और चट्टान से बना हो।
जब यह सूर्य के पास आता है- करीब तीन खगोलीय इकाई की दूरी पर आने पर – इसका ताप बढ़ने लगता है। इसकी कुद बर्फ पिघलती है ओर इसमें जमा धूल के कण मुक्त हो जाते हैं। इस तरह इसके चारों ओर धुंध के बादल से बन जाते हैं। इनहें ‘कोमा’ कहा जाता है। कोमा में थोड़ा- सा पदार्थ बहुत दूर दूर तक बिखरा रहता है इसलिए यह बहुत ही पारदर्शक और छलनी समान होता है। इस पारदर्शक कोमा के बीच धूमकेतु का ठोस केंद्र या नाभिक चमकता रहता है।
जब यह सूर्य के और करीब आता है – करीब दो खगोलीय इकाई तो कामा का कुछ हिस्सा पूंछ के रूप में बदलना शुरू होता है। यह पूंछ और पास आने पर बड़ी होती जाती है। धूमकेतु की पूंछ हमेशा सूर्य से विपरीत दिशा में बनी रहती है। कोई धूमकेतु जब सूर्य के काफी करीब पहुंचता है तो उसका तापमान काफी बढ़ चुका होता है।
सूर्य से सबसे करीब के बिन्दु से गुज़रने के बाद इसकी चमक कम होने लती है और इसका तापमान भी कम होने लगता है। जैसे-जैसे धूमकेतु दूर जाता है उसकी पूंछ सिकुड़ने लगती है, मोमा फिर जमने की अवस्था में आ जाता है और अंत में वही बचता है, गंदली वर्फ का एक गोला। धूमकेतु सूर्य की प्रत्येक यात्रा में कुछ छोटा होकर जाता है, क्योंकि हर बार उसकी पूंछ का कुछ पदार्थ अंतरिक्ष में फैल जाता है जो उसे वापस नहीं मिल पाता। इसलिए जब भी वह वापस आता है उसकी चमक पहले की यात्रा से कुछ कम ही होती है।
वैसे पदार्थ खोन की दर उसकी कक्षा ओर उसकी कक्षीय गति पर निर्भर करती है। अगर उसकी कक्षा छोटी है तो वह जल्दी–जल्दी सूर्य का चक्कर लगाएगा और जल्दी मन्द होता जाएगा। वहीं अगर उसकी कक्षा का आकार बढ़ा है तो प्रत्येक चक्कर में कहीं ज़्यादा समय लगेगा और उसी हिसाब से पदार्थ खोने की दर भी कम होगी।
चलिए हम फिर से हेल-बॉप की यात्रा पर वापस लौटते हैं। मार्च के शुरू में यह सुबह सूर्यास्त के बाद दिखाई पड़ने लगेगा। इसे देखने के लिए आपको किसी खुली जगह जाना पड़ेगा, क्योंकि यह क्षितिज से थेड़ा-सा ऊपर ह रहेगा। इस समय ये अपनी सबसे चमकदार अवस्था में होगा। एक अप्रैल के बाद तो यह अपनी वापिसी की तरफ मुड़ चलेगा। लेकिन फिर भी इसे अप्रैल के दूसरे हफ्ते तक देखा जा सकेगा। तो तैयार हो जाइए हेल-बॉप के स्वागत के लिए।