मूल लेख - सुशील जोशी       
संपादन व विस्तार - प्रियदर्शनी कर्वे

रंगों के आधार पर तितलियों को दो समूहों में बांटा जा सकता है। एक समूह की तितलियों के रंग ऐसे होते हैं जो किसी रंगीन पदार्थ से बने होते हैं। इन रंगीन पदार्थों को रंजक या पिगमेंट कहते हैं। लेकिन काफी सारी तितलियां रंजकों के बगैर भी रंगीन होती हैं। यानी किसी तितली के पंखों का रंग तो पीला दिखता है लेकिन पंखों पर कोई पीला रंजक नहीं होता। है न अचम्भे वाली बात! इस मुद्दे पर हम थोड़ी देर बाद आते हैं। पहले 'सचमुच' के रंगों के बारे में चर्चा कर लेते हैं। उसके बाद बिना रंजकों के दिखने वाले रंगों की बात करेंगे।
यह तो हम भली-भांति जानते हैं कि सूरज की रोशनी में कई रंगों की किरणें होती हैं। यदि इनमें से कुछ रंगों की किरणों को कम किया जाए। तो जो रंग दिखेगा वो बची हुई रंगीन किरणों का मिला-जुला परिणाम होगा। जैसे मान लो कोई वस्तु लाल रंग की है। उस पर सूरज की रोशनी पड़ती है। व उस वस्तु से टकराकर परावर्तित होकर हमारी आंखों तक आती है। और वह वस्तु हमें लाल दिखती है। क्योंकि उस वस्तु ने लाल रंग की किरणों को छोड़कर शेष सभी रंगों की किरणों को शोषित कर लिया है। यदि सूरज की रोशनी में मौजूद रंगों को आप देखना चाहते हों तो बॉक्स में दिए प्रयोग को ज़रूर करके देखिए।

कुदरत में बिखरे हैं रंजक
इस कुदरत में ऐसे अनेक रंजक पदार्थ हैं जो अपनी खास रासायनिक संरचना (बनावट) की वजह से किसी खास रंग की किरणों को बजाए सोखने के परावर्तित या संचारित (ट्रांसमिट) करते हैं। हमारे आसपास ऐसे रंजक पदार्थों की कोई कमी नहीं है। जैसे ‘क्लोरोफिल की वजह से पेड़-पौधों की पत्तियां हरी दिखती हैं, तो गाजर का रंग कैरोटिन की बजह से खास लाली लिए होता है। इसी तरह इंसानों में भी त्वचा का रंग मेलेनिन रंजक की मात्रा कम-ज्यादा होने की वजह से अलग-अलग होता है। तितलियों के शरीर में भी कुछ ऐसे रासायनिक पदार्थ होते हैं जो सफेद रोशनी में से कुछ रंगों को सोख लेते हैं और हमें तितली न सोखे गए रंगों/रंग के कारण दिखाई देती है। ऐसे कई सारे पदार्थ

धूप से रंग

एक थालीनुमा बर्तन को पानी से भर लीजिए। अब बर्तन को किसी ऐसी जगह रखिए जहां सूरज की रोशनी इस तक पहुंच रही हो। चित्र में दिखाए अनुसार बर्तन के किनारे से टिकाकर एक आईना रखिए। आईने का चमकदार हिस्सा ऊपर की ओर व सूरज की तरफ होना चाहिए। अब आईने को इस तरह सेट करना है कि सूरज का प्रतिबिम्ब पास की किसी दीवार पर बने।
यदि यहां तक सफलता पूर्वक पहुंच गए हों तो अब दीवार पर बनने वाले रंगों को ध्यान से देखिए। रंगों के इस समूह को वर्णक्रम कहा जाता है।

तितली के शरीर में होते हैं जिनमें - मिलेनीन, कैरोटिनाइड, टेरीन, ओमोक्रोम टेट्रापायरो, क्विलोन, फ्लेवोन समूह के पदार्थ प्रमुख होते हैं। हरेक पदार्थ किन्हीं खास रंगों की किरणों को सोख लेता है। पंखों पर एक ही जगह पर एक से ज्यादा रंजक पदार्थ होने की स्थिति में हमें रंगों में इनका मिला-जुला असर दिखाई देता है।
ये रंजक पदार्थ आते कहां से हैं? एक सीधा-सा जवाब हो सकता है कि शायद ये रंजक तितलियों के शरीर में ही निर्मित होते होंगे। लेकिन कुछ रंजक ऐसे भी होते हैं जो तितलियों को उनके भोजन के मार्फत मिलते हैं। यानी यदि ऐसी तितलियों के खान-पान को बदल दिया जाए तो तितलियों के रंग में भी बदलाव देखा जा सकता है।
अभी थोड़ी देर पहले जिन रंजक समूहों की चर्चा की गई है उनकी अलग-अलग मात्राएं लेकर यदि मिश्रण बनाए जाएं तो तितलियों में पाए जाने वाले लगभग सारे रंग बनाए जा सकते हैं। ऐसे कई सारे रंग तितलियों के शरीर से बनाए भी गए हैं।

शंबी से तितली: शंखी से बाहर निकलती हुई तितली। इस वक्त तितली के रंग काफी चटख होते हैं जो बाद में हवा के संपर्क की वजह से फीके पड़ते जाते हैं।

कुछ तितलियों के बारे में एक और तथ्य सामने आया है कि जब शंखी में से तितली बाहर आती है तब उसके रंग काफी चटख होते हैं लेकिन कुछ समय हवा के संपर्क में आने के बाद चटख रंग फीके पड़ने लगते हैं। इसका मतलब यह कि ये रंजक पदार्थ तितली के शरीर में एक ही बार तैयार होते हैं, और फिर हवा में मौजूद ऑक्सीजन से क्रिया की वजह से ये रंग फीके पड़ने लगते हैं।
एक और रोचक बात यह है कि इन फीके रंगों वाली तितली को क्लोरीन के सम्पर्क में रखा जाए तो फीके रंग दोबारा चटख रंगों में तब्दील हो जाते हैं। है न हैरानी वाली बात, क्लोरीन जो रंगों को उड़ाने (ब्लीचिंग) का काम करती है, वो यहां रंगों को चमका रही है।

कीट विशेषज्ञ बताते हैं कि ये रंजक कई बार बनते तो तितलियों के शरीर में ही हैं, लेकिन ये पदार्थ उत्सर्जन के लिए शरीर से बाहर निकाले गए होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हमारे शरीर से पसीना, मल-मूत्र जैसे उत्सर्जित पदार्थ। कुछ तितलियां इन उत्सर्जित पदार्थों को बजाए बाहर फेंकने के उन्हें शरीर में (पंखों पर) इकट्ठा करके रखती हैं। इस तरह के उत्सर्जन को नाम दिया गया है - संग्रह उत्सर्जन। ऐसे उत्सर्जित किए जाने वाले पदार्थ शरीर के लिए हानिकारक होते हैं इसलिए तितलियां उनमें थोड़ा परिवर्तन करके उन्हें अपने शरीर की कुछ पेशियों में एकत्रित करके रखती हैं। कई सारी तितलियों में उम्र के साथ-साथ ऐसे रंग भी गाढ़े होते जाते हैं।
रंजक होंगे तो रंग दिखेगा ही, इस बात को समझना आसान है। इसलिए इस बारे में सिर खुजलाने और परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। हां, थोड़ा टेढ़ा सवाल यह है कि ये रंजक पंखों पर एक खास किस्म का पैर्टन बनाते हुए ही किस तरह जमा होते हैं? इस सवाल को फिलहाल यहीं छोड़कर रंगों के बारे में कुछ और रोचक जानकारियों की ओर बढ़ते हैं।

बिना रंजकों के रंग
साबुन के पानी से बुलबुले तो हमने -आपने खूब उड़ाए हैं। इन बुलबुलों पर भी काफी सारे रंग दिखते हैं जबकि साबुन के पानी में हमने कोई रंग वगैरह नहीं मिलाया था। इसी तरह किसी पानी भरे गड्ढे में केरोसीन या पेट्रोल गिरकर फैल जाए तो पानी की सतह पर किस्म-किस्म के रंग दिखाई देते हैं। यहां भी हमने किसी रंजक को नहीं मिलाया था। बिना रंजकों के भी रंगों का एक और उदाहरण है नीला आसमान। हमने भला कब हवा में नीली स्याही मिलाई? इसी तरह सुबह-शाम का सूरज लालिमा लिए होता है। तो दोपहर को उसका रंग सफेद-पीला दिखता है। इन्द्रधनुष में तो सातों रंग साथ-साथ दिखते हैं। सुबह-शाम क्षैतिज पर बादलों का रंग देखिए उनके भी रंग बदलते रहते हैं।
ऊपर गिनाए उदाहरणों में रंग
 
'क', 'ख', 'ग' तीन पानी की स्थिर सतह के बिन्दु हैं। इनका विस्थापन, यानी इस सामान्य सतह से दूरी शून्य है। लहरें चलने की स्थिति में सतह पर स्थित पानी के कुछ कण वहीं बने रहते हैं ( क, ख, ग ), कुछ ऊपर चले जाते हैं (प) और कुछ नीचे की ओर चले जाते हैं (फ )। इसी वजह से हमें पानी की सतह पर लहर या तरंग दिखाई देती है। कोई भी कण आगे पीछे नहीं जाता परन्तु हमें ऐसा अहसास होता है कि लहरें आगे की ओर जा रही हैं।
रंजकों से बने हुए नहीं थे। इन्हें हम भौतिक रंग या भौतिक रचना के रंग कहते हैं यानी कि किसी वस्तु की बनावट की वजह से दिखते हैं ये रंग। रंजकों में तो उनकी रासायनिक बनावट की वजह से वे किन्हीं खास रंग की किरणों को सोख पाते हैं व परावर्तित किरणों की वजह से हमें रंग नज़र आते हैं। लेकिन जब रंजक न हो और फिर भी रंग दिखे तो वे रंग पदार्थ की भौतिक बनावट के कारण दिख रहे होते हैं।

तरंगों के गुणधर्म
भौतिक बनावट के रंगों को समझने के लिए प्रकाश और रंगों के बारे में कुछ मोटी-मोटी बातें समझ लेना बेहतर रहेगा। वास्तव में प्रकाश तरंगों के रूप में होता है। तरंगें यानी लहरें - समय और स्थान के अनुरूप बदलने बाली चीज़। लहर जो समय के साथ या स्थान परिर्वतन के साथ कम या ज्यादा हो सकती है जैसा कि पानी की तरंगों के साथ होता है, इसे आप भी देख सकते हैं। एक बाल्टी में पानी लीजिए। जब पानी की सतह स्थिर हो जाए तो पानी में एक छोटा-सा पत्थर डालिए। जहां पत्थर डाला वहां तरंगें उठने लगीं न? इन लहरों में पानी के कण ऊपर-नीचे होते हैं। यदि हम पानी की स्थिर सतह को प्रारंभिक बिन्दु मान लें तो पानी का प्रत्येक कण (अणु) इस शुरुआती बिन्दु से ऊपर या नीचे कुछ दूर तक जाकर वापस स्थिर सतह पर लौटता है।
चित्र-1 में 'क', 'ख', 'ग' तीन स्थिर सतह के बिन्दु हैं यानी इस समय पानी के कण सामान्य सतह पर हैं।


 तरंग की स्थिति (Phase)

दिए गए चित्र में तरंग पर 'अ' और 'ब' बिंदुओं को देखिए। ये दोनों बिन्दु तरंग में एक स्थिति में हैं या एक जैसे (In Phase) हैं। इसके विपरीत बिन्दु 'अ' और 'क' 'विपरीत स्थिति' में (Out Of Phase) हैं ऐसा कहा जाता है। अब 'प' बिन्दु पर गौर फरमाइए। इसकी स्थिति 'अ', 'ब', 'क' तीनों से फर्क है, परन्तु 'प' और 'फ' बिन्दु 'एक जैसी स्थिति में हैं।
इस चित्र से आप एक बात बखूबी समझ सकेंगे कि जब तरंग पर मौजूद दो बिन्दुओं में एक पूरी तरंग लंबाई का अंतर हो तब वे बिन्दु 'एक जैसी स्थिति में हैं ऐसा कहा जाएगा। जब दो बिन्दुओं के बीच का अंतर आधी तरंग लम्बाई का हो तो इन बिन्दुओं के बारे में कहा जाता है कि ये 'विपरीत स्थिति' में हैं जैसे कि 'ब' और 'क'। इस तरीके को अपनाते हुए एक ही तरंग लम्बाई की दो तरंगों के तरंग बिन्दुओं की तुलना की जा सकती है।


और इनका विस्थापन, यानी इस सामान्य सतह से दूरी शून्य है। लहरें चलने की स्थिति में सतह पर स्थित पानी के कुछ कण वहीं बने रहते हैं। (क, ख, ग), कुछ ऊपर चले जाते हैं (प) और कुछ नीचे की ओर चले जाते हैं (फ)। इसी वजह से हमें पानी की सतह पर लहर या तरंग दिखाई देती है। कोई भी कण आगे पीछे नहीं जाता परन्तु चूंकि समय के साथ-साथ उनका ऊपर-नीचे का विस्थापन बदलता रहता है इसलिए हमें ऐसा अहसास होता है। कि लहरें आगे की ओर जा रही हैं। चित्र-1 में दिखाए गए 'क' से 'ग' तक के हिस्से को एक तरंग कहते हैं। 'क' और 'ग' बिन्दुओं के बीच के अंतर को तरंग लम्बाई (Wave Length) कहते हैं व एक सेकेंड में जितनी तरंगें बनती हैं उन्हें तरंग-दैर्ध्य (Wave Frequency) कहते हैं।

प्रकाश भी एक तंरग है, लेकिन इसमें ऊपर-नीचे क्या होता होगा? प्रकाश में कुछ भी ऊपर-नीचे नहीं हो रहा होता, सिर्फ कम-ज्यादा होता है। और वह है विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र यानी विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र शून्य से ज्यादा होता है, दोबारा शून्य पर आता है, फिर विपरीत दिशा में सर्वाधिक विस्थापित होकर वापस शून्य पर आता है। इसे एक तरंग या लहर कहते हैं। दृश्य प्रकाश में अलग-अलग तरंग लम्बाई की किरणें हमारी आंखों को रंगों के रूप में दिखती हैं। लाल किरणों की तरंग लम्बाई सबसे ज्यादा होती है तो बैंगनी किरणों की तरंग लम्बाई सबसे कम होती है।
अब देखें रंगों और तरंगों का खेल। तरंगों के खेल से नज़र आने में कई प्रक्रियाओं का हाथ होता है - जैसे प्रकाश का स्कैटरिंग यानी बिखराव, इंटरफेरेंस (व्यतिकरण) और डिफ्रेक्शन (विवर्तन)। तितलियों के भौतिक रंगों का भी इन्हीं सब से लेना देना है।

शुरुआत डिफ्रेक्शन यानी विवर्तन से करते हैं। प्रकाश तरंगें हमेशा सीधी रेखा में चलती हैं यह हम भली-भांति जानते हैं लेकिन यदि रास्ते में कोई बाधा आए तो प्रकाश अपना रास्ता बदलता है। इसे प्रकाश का विवर्तन कहते हैं।
विवर्तन (डिफ़ेक्शन) क्या होता है यह देखने के लिए एक सीधा सहज प्रयोग करके देख सकते हैं। आप अपने एक हाथ की दो पास-पास की अंगुलियों को सटाने की कोशिश कीजिए। आप देखेंगे कि अंगुलियां सटाने के बावजूद एक पतली झिरीं बनी रहती है। इस झिरीं में से किसी जलते हुए ट्यूब लाइट या बल्ब को देखिए। ध्यान से देखने पर झिरीं में से दिखाई देने वाली ट्यूब लाइट पर महीन काली रेखाएं दिखाई देती हैं। यदि अंगुलियों के बीच की झिरी को और भी कम करें तो ये काली रेखाएं भी अपना स्थान बदलती हैं। प्रकाश के विवर्तन की वजह से ही हो रहा है ऐसा।

एक प्रयोग: टेबल लैम्प से  
प्रकाश के विवर्तन को समझने के लिए एक और प्रयोग किया जा सकता है। इसके लिए एक टेबल लैम्प चाहिए। टेबल लैम्प के मुंह पर काला, अपारदर्शक कागज़ चिपकाइए। अब इस काले कागज़ में ऑलपिन से छेद कीजिए। कमरे में अंधेरा करके लैम्प चालू कीजिए। अंधेरे कमरे में ऑलपिन से किए छेद से रोशनी बाहर आ रही है। टेबल लैम्प को दीवार के पास ले जाकर दीवार पर पड़ रही रोशनी को ध्यान से देखिए। दीवार पर दिखाई दे रहा प्रकाश बिन्दु, काले कागज़ पर बनाए छेद से काफी बड़ा है। साथ ही इस बिन्दु के बाहर की ओर एक कम प्रकाशित रिगनुमा पट्टा भी दिखता है। यह सब प्रकाश के विर्वतन का परिणाम है। (चित्र अगले पृष्ठ पर)
दीवार पर मौजूद कोई बिन्दु प्रकाशित दिखेगा या काला, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहां पर
 
  
दीवार पर प्रकाश का पैटर्नः समझने में आसानी हो इसलिए यहां सिर्फ छेद के किनारे से निकलने वाली तरंगों को दिखाया गया है। दरअसल छेद में से जो खूब सारी तरंगें निकलती हैं उनके मिले-जुले प्रभाव से तय होता है कि दीवार पर कहां प्रकाश होगा और कहां अंधेरा।

छेद के विभिन्न हिस्सों से आने वाली प्रकाश तरंगो का मिला-जुला परिणाम क्या होगा। जब दो प्रकाश तरंगें एक ही समय एक ही बिन्दु पर पहुंचती हैं। तो वह बिंदु प्रकाशित होगा या नहीं या कितना प्रकाशित होगा यह इस बात पर निर्भर करेगा कि दोनों तरंगों की फेज़ एक जैसी है या एक दूसरे से विपरीत। आगे की चर्चा व चित्र-2 देखने से यह बात और स्पष्ट होगी।
यदि दीवार के किसी बिन्दु पर आने वाली दोनों प्रकाश तरंगें एक जैसी हुई तो वह बिंदु प्रकाशित रहेगा जैसे कि बिंदु 'क' पर हो रहा है; अगर वे एक दूसरे से विपरीत हों तो बिंदु काला दिखेगा यानी वहां पर अंधेरा रहेगा (बिंदु 'ख' व 'ग')। इन दोनों स्थितियों के बीच प्रकाशित हिस्से से अंधेरे वाले हिस्से की ओर प्रकाश तीव्रता में क्रमशः कमी आती हुई

प्रकाश का विवर्तन व व्यतिकरण : सरल स्तर पर समझने के लिए यहाँ हरेक छेद में से केवल दो-दो प्रकाश की तरंगों कों दिखाया गया है जिससे प्रकाशित या अंधेरे वाले हिस्से बन रहे हैं। वास्तविक में दोनों छेदों से आने -वाली बहुत -सी प्रकाश तरंगों के मिले -जुले प्रभाव से दीवार पर पैटर्न बनेगा
 
दिखती है; और अंधेरे हिस्से से प्रकाशित हिस्से की ओर प्रकाश की तीव्रता क्रमशः बढ़ती हुई दिखती है। 
इस प्रयोग को थोड़ा ध्यान देकर करेंगे तो जल्द ही यह समझ में आएगा कि दीवार पर मौजूद कोई बिन्दु प्रकाशित होगा या अंधेरेवाला। वैसे यह इन बातों से भी तय होता है:
1. छेद का आकार (Size) और
2. दीवार पर मौजूद बिन्दु का छेद से बनने वाला कोण।
इस प्रक्रिया में तरंगों की लम्बाई भी एक महत्वपूर्ण घटक है। बारीक छेद में से गुजरने पर टेबल लैम्प के प्रकाश में मौजूद विभिन्न रंगों की  यानी विभिन्न तरंग लंबाई की किरणें अलग-अलग मात्रा में मुड़ेंगी। इसलिए दीवार पर किसी विशेष बिंदु पर किस-किस रंग की किरणें पहुंच रहीं हैं उससे तय होगा कि वहां कौन-सा रंग दिखेगा।

अब यदि हम टेबल लैम्प पर चिपकाए गए काले कागज़ पर एक के बजाए एक और छेद करें तो क्या होगा? अब दीवार पर का कोई भी बिन्दु अंधेरे में होगा या प्रकाशित हिस्से में होगा यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इन दो छेदों से आ रही प्रकाश तरंगों का मिला-जुला प्रभाव क्या हो रहा है।
इन दोनों प्रयोग में दीवार पर जो पैटर्न दिखेगा वह दो घटनाओं की वजह से होगा। एक कि कागज़ में बने बारीक छेद की वजह से प्रकाश किरणें मुड़ रही हैं और अलग-अलग तरंग
प्रकाश का विवर्तन व व्यतिकरणः सरल स्तर पर समझने के लिए यहां हरेक छेद में से केवल दो-दो प्रकाश की तरंगों को दिखाया गया है जिससे प्रकाशित या अंधेरे बाले हिस्से बन रहे हैं। वास्तविकता में दोनों छेदों से आने वाली बहुत-सी प्रकाश तरंगों के मिले-जुले प्रभाव से दीवार पर पैटर्न बनेगा।


असल रंग कौन-सा है

जिस तरह कोई चीज़ किस रंग की दिखाई देगी वह इस बात से तय होता है कि वह वस्तु रोशनी की किन रंगों की किरणों को शोषित करेगी; उसी तरह वस्तु के रंग का निर्धारण इस बात से भी तय होता है कि वस्तु पर किस तरह का प्रकाश पड़ रहा है।
इन दिनों मझौले और बड़े शहरों में काफी बड़ी तादाद में मरक्यूरी की वाष्प वाले बल्ब इस्तेमाल किए जाते हैं। शायद हम में से काफी सारे लोगों का यह अवलोकन भी रहा है कि इन बल्बों की रोशनी में देखने पर वस्तुएं वैसी नहीं दिखती जैसी साधारण सूर्य प्रकाश में दिखाई देती हैं। इसका मुख्य कारण तो यह है कि पारे की भाप वाले बल्ब से बाहर निकलने वाली रोशनी में विविध रंगों की किरणों का अनुपात सूरज की रोशनी में मौजूद अनुपात से थोड़ा फर्क होता है। इसलिए किसी एक ही वस्तु से टकराकर सूर्य के प्रकाश और इस रोशनी का सोखा गया हिस्सा और शेष हिस्सा जो हमारी आंखों तक आता है उनमें साफ फर्क दिखाई देता है।

उदाहरण के लिए, पारे की भाप वाले बल्ब में लाल रंग की किरणें होती ही नहीं हैं। ऐसे में सूरज की रोशनी में दिखाई देने वाली लाल मिर्च पारे की भाप वाले बल्ब की रोशनी में काली दिखाई देगी।
एक और मजेदार बात यह है कि किसी चीज़ का कोई खास रंग होना और किसी बल्ब से आने वाली रोशनी का किसी खास रंग का होना इसमें दो तरह की प्रक्रियाएं हो रही होती हैं। पकी मिर्च का रंग लाल होने का क्या मतलब है? यही न कि सूरज की रोशनी में मौजूद सभी किरणों में से मिर्च लाल किरणों को छोड़कर बाकी सभी किरणों को सोख लेती है और सिर्फ लाल रंग को परावर्तित करती है। इस प्रक्रिया में मिर्च पर पड़ने वाली सफेद रोशनी में से कुछ रंग की किरणों को निकाल लिया गया है जिससे मिर्च का खास रंग दिख पा रहा है। इसे 'कलर बाय सबट्रेक्शन' कहते हैं। लेकिन बल्ब में से बाहर निकलने वाली रोशनी जो पीली दिखती है वो अलग-अलग रंगों की किरणों के कुल योग का असर होता है। इसे कुल योग के रंग या 'कलर बाय एडीशन' कहते हैं।

इन मूलभूत गुणों को दो रंगों के रंजकों के मिश्रण का रंग और दो उन्हीं रंगों की प्रकाश किरणों के मिश्रण के रंग में साफतौर से देखा जा सकता है। नीले और पीले रंग को मिलाया जाए तो हरा रंग तैयार हो जाता है लेकिन नीली और हरी रोशनी को मिलाया जाए तो सिर्फ सफेद रंग ही सामने आता है।


लंबाई की किरणें अलग-अलग मात्रा में मुड़ रहीं हैं। जैसा कि हमने पहले देखा इस प्रभाव  को विवर्तन या डिफ़ेक्शन कहते हैं। और दूसरा कि दीवार पर विभिन्न बिंदुओं पर कई किरणें पहुंच रही हैं जिनके मिले-जुले प्रभाव के कारण हमें वहां पर पैटर्न दिखाई देता है। इस घटना को व्यतिकरण (Interference) कहते हैं।
प्रकाश के विवर्तन की तरह ही प्रकाश का व्यतिकरण भी प्रकाश तरंगों की लम्बाई और छेद के आकार पर निर्भर होता है। साथ-साथ दीवार पर मौजूद बिन्दु ने दो छेदों के मध्य बिन्दु से कितने अंश का कोण बनाया है, और दोनों छेदों के बीच का फासला कितना है ये सब भी महत्वपूर्ण कारक हैं जिनका असर व्यतिकरण पैटर्न पर पड़ता है।
यदि इस प्रयोग में लगभग प्रकाश तरंगों की लम्बाई के साइज़ के छेद बनाए जाएं तो विवर्तन में व्यतिकरण की वजह से हमें दीवार पर विविध रंग दिखाई देंगे।
इसी प्रयोग की अगली कड़ी में हम एक-दो छेदों की बजाए एक ऐसी जाली का इस्तेमाल करें जिसमें पास-पास काफी सारे छेद बने हों। अब हरेक छेद की वजह से होने वाले विवर्तन और इन सब छेदों से आने वाली प्रकाश तरंगों के व्यतिकरण का सम्मिलित परिणाम दीवार पर दिखेगा। यदि हम जाली को या छेदों को विभिन्न कोण से देखें या कोण बदलते हुए देखें तो हमें अलग-अलग रंग दिखाई देंगे।
जिस तरह पारदर्शक जाली के कारण मन को लुभाने वाले रंगों के पैटर्न बनते हैं उसी तरह किसी परावर्तक सतह पर काफी सारे गड्ढे हों (जैसे जाली में छेद थे) तो परावर्तक सतह से प्रकाश तरंगों के टकरानेके बाद भी इसी तरह रंगों के पैटर्न उभरते 


रंगों का क्या काम है?

इस लेख को पढ़ते समय आप यह जरूर सोच रहे होंगे कि मान लो तितली इतनी रंगीन नहीं भी होती तो क्या बिगड़ जाता। आखिर इन रंगों का फायदा क्या है? केवल अनुमान लगाया जा सकता है कि तितली के पंखों पर मौजूद विविध पैटर्न शायद अलग-अलग काम करते होंगे; जैसे हो सकता है कि कुछ तितलियों में ये दुश्मनों से बचाव के काम आते हों, कुछ में ये पैटर्न मादा को आकर्षित करते हों, तो कुछ में बिना किसी वजह के ही हों।


हैं। यह बात तो तय है कि पैटर्न कैसे दिखेंगे यह जाली या परावर्तन सतह पर छेदों/गड्ढों की जमावट से तय होगा।

साबुन के बुलबुले के रंग
किसी पानी भरे गड्ढे में पेट्रोल बिखरा हो या साबुन के पानी से बने बुलबुलों में विविध रंगों के पैटर्न दिखाई देते हैं। पेट्रोल या बुलबुले की बेहद पतली सतह पर जब प्रकाश टकराता है तो उसका कुछ हिस्सा तो पतली सतह से टकराकर परावर्तित हो जाता है। कुछ हिस्सा परावर्तित न होकर सतह में घुस जाता है, और सतह के निचले हिस्से से अंशतः परावर्तित होता है। इस तरह परावर्तित हुआ प्रकाश फिर से ऊपरी सतह तक आता है। ऊपरी सतह तक आये प्रकाश का कुछ हिस्सा तो सतह को पार कर आगे चला जाता है लेकिन कुछ हिस्सा ऊपरी सतह से टकराकर पुनः नीचे की ओर परावर्तित हो जाता है। (चित्रः 4)।


रंग  एवं तरंग लम्बाई

विवर्तन (डिफ़ेक्शन) और व्यतिकरण (इंटरफेरेंस) की वजह से प्रकाश में से रंग किस तरह अलग होते हैं यदि यह देखना हो तो प्रकाश के स्रोत के सामने रखी चलनी के छेदों का साइज़ या झिल्ली की मोटाई, प्रकाश तरंगों की लंबाई से मेल खाने चाहिए। दृश्य प्रकाश में तरंगों की लंबाई साधारणतः 380 नेनोमीटर से 750 नेनोमीटर के बीच होती है। (1 नेनोमीटर यानी 10- मीटर) 380 नेनोमीटर वाली रोशनी बैंगनी होती है तो 750 नेनोमीटर वाली रोशनी लाल होती है।
प्रकाश के रंगों पर विवर्तन के परिणाम देखने के लिए हमें कुछ सौ नेनोमीटर व्यास के छेदों का इस्तेमाल करना पड़ता है। इतने सूक्ष्म आकार खुली आंखों से तो दूर, ऑप्टिकल माइक्रोस्कोप के नीचे भी काफी परेशानी से दिखेंगे। प्रयोगशालाओं में विवर्तन के गुणों की जांच के लिए खास किस्म की जाली को उपयोग में लाते हैं। इस जाली को विवर्तन जाली (Difraction Grating) कहते हैं। आपके आसपास के किसी साइंस कॉलेज में ऐसी जाली देखने को मिल जाएगी। इस तरह की जाली का इस्तेमाल करके प्रकाश में से अलग-अलग रंगों को पृथक करने का प्रयोग भी देख सकेंगे।
इसी तरह अगर व्यतिकरण की घटना देखनी हो तो भी इतने ही बारीक छेद या झिल्ली की जरूरत होगी।


रंगीन परत किस तरहः साबुन का बुलबुला या सड़क के किसी पानी भरे गड्ढे में बिखरे डीजल की ऊपरी परत काफी गनि दिप डीजल की ऊपरी परत काफी रंगीन दिखाई देते है। इन दोनों में होता यह है कि प्रकाश का कुछ हिस्सा तो बुलबुले या डीजल की ऊपरी परत से टकराकर परावर्तित हो जाता है। बचा हिस्सा परावर्तित न होकर बुलबुले या डीजल की परत से होता हुआ भीतर चला जाता है। यहां फिर से कुछ हिस्सा तो दूसरी ओर बाहर निकल जाता है लेकिन शेष हिस्सा भीतरी परत से टकराकर परावर्तित होता हुआ हमारी आंखों तक आता है। इन दो तरह की किरणों के परिणामी प्रभाव से ही हमें दिखाई देते है ये अदभुत रंग।

कुल मिलाकर हमारी आंखों तक पहुंचने वाली प्रकाश किरणें दो किस्में की हैं। एक जो पेट्रोल की सतह के ऊपरी भाग से परावर्तित होकर हमारी आंखों तक आ रही हैं। दूसरी वे किरणें जो पेट्रोल की सतह के निचले भाग से टकराकर परावर्तित होकर हमारी आंखों तक आ रही हैं। ये दो किस्म की प्रकाश किरणें एक ही दिशा में चल रही हैं, एक ही जगह पहुंच रही हैं लेकिन पहली किरणों के मुकाबले दूसरी किरणें कुछ ज्यादा सफर तय कर रही हैं। और वो भी हवा, पेट्रोल या पानी की सतह जैसे अलग-अलग अपवर्तनांक वाले माध्यमों से गुजरते हुए।
हवा से ज्यादा अपवर्तनांक वाले माध्यमों में घुसने पर किरणों की तरंग लम्बाई कम हो जाती है और फिर से हवा में आने पर तरंग लम्बाई पहले की तरह हो जाती है। निश्चित ही पेट्रोल की बारीक झिल्ली में से होकर आने वाली प्रकाश तरंगों की स्थिति भी फर्क होगी। और इसकी वजह से व्यतिकरण होकर रंग-बिरंगे पैटर्न दिखाई देते हैं।
मान लीजिए इसी तरह के अलग-अलग अपवर्तनांक वाली परतें एक के
 
मोरपंख के रंगः मोरपंख की हरी-नीली छटाएं मन को मोह लेती हैं। लेकिन यदि मोरपंख को ध्यान से देखेंगे तो आपको भी लगेगा कि आपके साथ अभी तक धोखा हो रहा था। यकीन न हो तो इस लेख के आखिर में मोरपंख के साथ दिए प्रयोग को करके देख लीजिए।

नीचे एक हो तो? कुछ तितलियों के पंखों की बनावट बिल्कुल ऐसी ही होती है। कुछ तितलियों के पंखों पर बहुत महीन धारियां होती हैं जो बहुत पास-पास उभरी हुई और धंसी हुई होती हैं। इन परतों की वजह से पंख भी डिफ़ेक्शन चलनी का काम करते हैं।
पंखों पर महीन संरचना दो या तीन परतों में होती है। हरेक परत में बालों की बनावट फर्क होती है। दो परतों के बीच का फासला हवा से भरा होता है। इस किस्म की बहुस्तरीय बनावट के कारण तितलियों के पंखों से परावर्तित होने वाली रोशनी में विवर्तन और व्यतिकरण, दोनों घटनाएं देखने को मिलती हैं। ऐसी तितलियों को यदि हम कोण बदल-बदलकर देखें तो उनके पंखों के रंग बदलते हुए नज़र आते हैं।
कुछ तितलियों में रंग रासायनिक बनावट (पिगमेंट) और भौतिक रंगों का मिला-जुला प्रभाव भी हो सकता है। मान लीजिए किसी तितली के पंखों की महीन धारियों में पीला रंजक पदार्थ मौजूद है तथा महीन धारियों की बहुस्तरीय परत नीला रंग बनाने वाली है तो इन दोनों के मिले-जुले असर से तितली हरे रंग की दिखेगी।
शरीर की सतह पर मौजूद खास रचनाओं के कारण रंगीन दिखना सिर्फ तितलियों तक सीमित नहीं है। कुछ कीटों, पक्षियों, मछलियों, सांप वगैरह में भी इसी प्रकार के रंग दिखाई देते हैं। इस सब चर्चा के बीच मोरपंख की बात न हो यह ठीक नहीं लगता।

मोरपंख के रंग
यदि मोरपंख को आप ध्यान से देखेंगे और पंख के छोटे-छोटे हिस्सों पर गौर करेंगे तो आपको मोरपंख के रंगों का रहस्य समझ में आएगा। पिछले हिस्से पर रोशनी डालकर सामने से देखने से पता चलता है कि मोरपंख वास्तव में उतना रंग-बिरंगा नहीं है। उसमें सिर्फ बैंगनी रंग ही इफरात में है। पंख के साथ होता यह है कि पंख पर सामने से पड़ने वाली रोशनी के परावर्तन, विवर्तन और व्यतिकरण के कारण यह मन को लुभाने वाली हरी-नीली छटाएं बिखेरता है।
कौन-कौन से रंग दिखेंगे और किस पैटर्न में दिखेंगे यह बात हवा की परत, तितलियों के पंखों की रचना (या मोरपंख में परतें), इनके अपवर्तनाकों में फर्क जैसी बातों पर निर्भर है। इसका एक अर्थ यह भी है कि पंखों पर जमे विभिन्न पदार्थों की परतों के बीच का खाली स्थान हवा की बजाए किसी अन्य पदार्थ के द्वारा भरा जाए तो कुछ फर्क रंग और कुछ फर्क पैटर्न नजर आएंगे। यदि आपके पास मोर पंख हो तो उस पर पानी या पेट्रोल की कुछ बूंदें डालकर देखिए कि क्या होता है। यदि ऐसा करने पर कुछ गड़बड़ लग रहा हो तो भी डरिए मत क्योंकि पानी या पेट्रोल सूख जाने पर आपका मोरपंख पहले की तरह मनभावन दिखने लगेगा।


लेखक: प्रियदर्शनी कर्वे। सिंहगढ़ कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, पुणे में पड़ाती हैं। पुणे से प्रकाशित मराठी संदर्भ की संपादन टीम की सदस्य हैं।
सुशील जोशी: एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़े हैं। साथ ही स्वतंत्र विज्ञान लेखन व अनुवाद करते हैं।
मूल लेख: चकमक पत्रिका के सितंबर 1998 के अंक में प्रकाशित।
संपादित च विस्तृत लेख: मराठी संदर्भ के अंक-6, जून-जुलाई, 2000 में प्रकाशित।
अनुवाद : माधव केलकर। संदर्भ पत्रिका से संबद्ध।