संजय कुमार तिवारी

पिछले दिनों मेरे एक दोस्त ने बताया कि पिपरिया के पास अनहोनी गांव में गर्म पानी का झरना है। यहां पानी इतना गर्म होता है कि आप चावल भी पका सकते हैं।
पढ़ाई के दौरान गर्म पानी के झरनों के बारे में पढ़ा तो था परन्तु यह सुनकर अचरज हुआ कि होशंगाबाद के इतने करीब एक ऐसा झरना मौजूद है। इसलिए अनहोनी जाकर इसे देखने की योजना बनाई। पिपरिया-छिंदवाड़ा मुख्य सड़क से 10 किलोमीटर अंदर अनहोनी गांव (जिला छिंदवाड़ा) बसा है। इस गांव को बड़ी अनहोनी भी कहते हैं। यहां लगभग 8 फुट लंबा और 8 फुट चौड़ा कुंड है जो करीब 6 फुट गहरा दिख रहा था। इस कुंड की तली से लगातार गैस के बुलबुले उठ रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था मानों पानी खौल रहा हो।

इस पानी में थर्मामीटर डालकर नापा तो पानी का तापमान 50 डिग्री सेंटीग्रेड था। इस कुंड का पानी पास के एक नाले में गिर रहा था। कुंड के पानी में हाइड्रोजन सल्फाइड की गंध भी आ रही थी।
काफी देर तक यकीन नहीं हो रहा था कि गर्म पानी का झरना भी हो सकता है! आमतौर पर कुएं, नलकूपों से मिलने वाला पानी गर्मियों में थोड़ा ठंडा और सर्दियों में हल्का-सा कुनकुना होता है लेकिन यहां तो मामला कुछ और ही था। पानी इतना गर्म था कि नहाना भी मुश्किल था।

बातों-ही-बातों में पता चला कि इस अनोखी घटना की वजह से ही इस गांव का नाम अनहोनी पड़ा। रह-रहकर मेरे दिमाग में एक सवाल कौंध रहा था कि यहां ऐसा क्या है जिससे पानी इतना गरम है। कुछ भूगोल की किताबें देखीं तो पता चला कि इस किस्म के झरनों को गरम पानी के झरने (Hot Spring) कहते हैं। फिर यह भी पता चला कि ऐसे झरने भारत में काफी जगहों पर मौजूद हैं। लेकिन इन झरनों की ही एक विचित्र किस्म ‘गीजर' है जिसमें पानी फव्वारे की तरह बाहर निकलता है, परन्तु ‘गीज़र भारत में कहीं भी नहीं पाए जाते।

आप सोच रहे होंगे कि एक बात तो पूरी की नहीं और एक नया शब्द थाम लिया। लेकिन यकीन मानिए कि बिना 'गीज़र' की चर्चा किए हॉट स्प्रिंग की बात अधूरी ही रह जाएगी।
और इन दोनों को समझने के लिए शुरुआत में धरती के ऊपरी हिस्से की बनावट को थोड़ा बहुत समझना होगा। पहली बात तो यह कि इस धरती को बनाने वाली चट्टानों में से कुछ चट्टानें अपनी बनावट के आधार पर खुद में से पानी को पूरी तरह रिसने देती हैं, कुछ पानी को बहुत ही कम रिसने देती हैं, और कुछ चट्टानें पानी को एकदम ही रिसने नहीं देती। चट्टानों के इन गुणधर्मों की वजह से धरती की ऊपरी सतह तथा अंदरुनी हिस्सों को बनाने वाली चट्टानें पारगम्य या अपारगम्य परतों को बनाती हैं। पारगम्य यानी जिस में से पानी रिस जाए। इन अलग-अलग परतों की वजह से धरती की सतह से बरसाती पानी का कुछ हिस्सा ज़मीन के नीचे गहराई तक चला जाता है और कुएं, नलकूप या प्राकृतिक झरनों के रूप में पुनः सतह पर आता है। (झरनों के बारे में जानकारी के लिए बॉक्स देखिए)

दूसरी बात, जैसे-जैसे धरती के भीतर गहराई में जाते हैं, तापमान बढ़ने लगता है। औसत रूप में यह पाया गया है कि हर 32 मीटर की गहराई पर तापमान 1 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ जाता है। हालांकि पूरी धरती के भीतर इसी दर से तापमान में वृद्धि हो यह कतई जरूरी नहीं है, इस दर में थोड़ी घट-बढ़ तो होती ही है। जैसे ध्रुवीय प्रदेशों या लगातार बर्फ की चादर से ढंके इलाकों में तापमान वृद्धि की यह दर 32 मीटर के हिसाब से नहीं चलती। इसी तरह ज्वालामुखी सक्रियता वाले इलाकों में भी हर 32 मीटर की गहराई वाली दर के हिसाब से तापमान नहीं बढ़ता।
यह सब जानकारी यहां देना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इससे आगे आपको उबलते पानी के चश्मों को समझने में मदद मिलने वाली है। जैसा कि अभी चर्चा हुई कि धरती के नीचे पारगम्य और अपारगम्य किस्म की चट्टानी परतें होती हैं। पारगम्य परतों से तो बरसाती पानी रिसता हुआ काफी गहराई तक जा सकता है

झरनों के लिए परिस्तिथियाँ

झरनों के रूप मे भूमिगत जल पुन: धरातल पर आ जाता है। धरातल के नीचे किसी विशेष स्थान विशेष पर पानी का काफी जमाव हो जाता है। इस पानी को पुनः सतह पर झरनों के लिए परिस्थितियां झरनों के रूप में भूमिगत जल पुनः धरातल पर आता है। धरातल के नीचे किसी स्थान विशेष पर पानी का काफी जमाव हो जाता है। इस पानी को पुनः सतह पर आने के लिए कुछ खास परिस्थितियां जरूरी हैं। यदि वे परिस्थितियां बन गई तो झरना बनता है। नीचे दिए चित्र के माध्यम से कुछ परिस्थितियों को दिखाने की कोशिश की गई है।

चित्र-1: पानी को आसानी से रिसाव हो सकने वाली एक चट्टान में इतना पानी इकट्ठा हो गया कि उस घट्टान में वाटर टेबल (डॉटेड लाइन) धरातल से ऊपर चला गया फलस्वरूप पानी भरने के रूप में बाहर निकलने लगा है।
चित्र-2: यहां दिखाई पहाड़ी स्थलाकृति में भी नीचे अपारगम्य परत है और ऊपर पारगम्य चट्टानी परत है। पारगम्य परत में मौजूद पानी रिसकर नीचे जाता है और अपारगम्य परत के पास से बाहर निकलने लगता है।
चित्र-3: कैल्शियम कार्बोनेट से बनी चट्टानों के हिस्से पानी में घुलनशील होने के कारण कई बार लंबी-लंबी नलिय/दरारें बन जाती हैं। इन दरारों में पानी जमा होता जाता है। जैसे ही सतह के पास खुलने वाली दरार मिल जाती है, पानी भरने के रूप में बाहर निकल जाता है।
लेकिन जैसे ही कोई अपारगम्य परत आ जाए तो पानी का रिसाव बंद हो जाता है  यदि एन अपारगम्य परतों मे दरारें हो तो पानी और भी गहराई तक जा सकता है। आमतौर पर अवसादी चट्टानें (Sedimentary Rocks) पारगम्य होती हैं और मैग्मा-लावा से बनी कायांतरित चट्टानें (Metamorphic Rocks) अपारगम्य होती  है। अवसादी चट्टानें धरती की

हॉट स्प्रिंग और गेसराइटः येलोस्टोन नेशनल पार्क, अमरीका का यह प्रसिद्ध हॉट स्प्रिंग है। इसमें बाहर निकलने वाले पानी में काफी मात्रा में खनिज घुले होते हैं। बाहर निकलने पर इस पानी से खनिज पदार्थों का निक्षेपण (Deposition) होने लगता है। आमतौर पर ये निक्षेप गीजर या हॉट स्प्रिंग के छेद के आसपास कीप जैसी या सीढ़ीनुमा आकृति बनाते हैं।‘मैमथ हॉट स्प्रिंग' में निक्षेप ने सीढ़ीनुमा आकृति की रचना की है। पानी में सामान्यतः कैल्शियम कार्बोनेट, सिलिका घुली होती है और इन निक्षेपों को सिलिका सिन्टर या गेसराइट कहा जाता है।

सतह पर तो खूब फैली हैं लेकिन जैसे-जैसे गहराई में जाते हैं वहां सिर्फ लावा-मैग्मा से बनी चट्टानों को बोलबाला है। यानी धरती की सतह पर बहने वाला पानी एक हद तक तो रिसता हुआ गहराई में चला जाता है। लेकिन उसके बाद अपारगम्य परतों को पार नहीं कर पाता। इन अपारगम्य परतों में काफी सारी दरारें होती हैं। इन परतों में टूट-फूट भी लगातार चलती रहती है जिससे इन्हें पार किया जा सकता है। इस तरह पानी रिसता हुआ 2-3 किलोमीटर तक तो जा ही सकता है। लेकिन सभी जगह पानी इतनी गहराई तक पहुंच जाए ऐसा जरूरी नहीं है।

अब हम अपने शुरुआती सवाल की ओर लौट सकते हैं कि जमीन के नीचे से गरम पानी के झरने कैसे फूटते हैं। यह बात तो एकदम साफ है कि धरती की सतह के नीचे कोई-न-कोई उष्मा का स्रोत है जो रिसकर पहुंच रहे पानी को काफी गरम कर देता है। धरती में गहराई पर जाने पर औसतन हर 32 मीटर पर एक डिग्री तापमान बढ़ता है, इस दर से पानी का तापमान 50-60 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ाने के लिए एक-डेढ़ किलोमीटर नीचे जाना होगा। दूसरी संभावना यही है कि गरम मैग्मा का कोई छोटा चैम्बर धरती की ऊपरी सतह के काफी करीब है जो अपने आसपास की चट्टानों को भी गरम कर देता है। आमतौर पर ऐसे मैग्मा का तापमान 350 डिग्री सेंटीग्रेड या इससे भी ज्यादा होता है। यदि रिसता हुआ पानी इस गरम मैग्मा या इसके आसपास की गरम चट्टानों के सम्पर्क में आ जाए तो इस पानी का तापमान बढ़ने लगता है। इस तरह के कम गहराई में पाए जाने वाले मैग्मा चैम्बर ज्वालामुखी की सक्रियता वाले इलाकों में तो बहुतायत में होते ही हैं लेकिन उन इलाकों में भी मिलते हैं जहां वर्तमान समय में कोई भी ज्वालामुखी सक्रियता दिखाई नहीं देती।

पानी गरम कैसे होता है: धरती की सतह पर बहने वाला पानी पारगम्य चट्टानों से रिसता हुआ गहराई में पहुंच गया है। यहां नीचे मैग्मा का एक चैम्बर है जो आसपास की चट्टानों को गरम कर रहा है। इन गरम चट्टानों के सम्पर्क में आने से पानी अतितप्त हो जाता है। वह अपने सामान्य उबाल बिन्दु से भी कहीं ज्यादा गरम हो चुका होता है। जब यह पानी ऊपर की ओर उठता हुआ भूसतह के करीब आता है तब भी यह उबल रहा होता है क्योंकि यह पानी जैसे-जैसे ऊपर उठता है दबाव कम होने की वजह से इसका उबाल बिन्दु भी कम होता जाता है। यह पानी धरातल पर गीज़र या हॉट स्प्रिंग के रूप में दिखाई देता है।

गीज़र का फूटना: एक गीज़र के लिए जरूरी सभी बातें यहां दिखाई दे रही हैं। लेकिन फिर भी गीजर तभी फूटता है जब ऊपर का ठंडा पानी निचले हिस्से के पानी पर काफी दबाव बना सके। इस दबाव की वजह से ही नीचे का पानी अतितप्त होता है और वह दबाव बना पाने में कामयाब होता है जो पानी को ऊपर उछाल सके।
अब इस बात की काफी संभावना है कि रिसता हुआ पानी उष्मा के इस स्रोत के सम्पर्क में आ जाए। ऐसे में पानी धीरे-धीरे गरम होता जाता है और बाहर निकलने के रास्ते खोजता हुआ पुनः धरातल पर आ जाता है। चूंकि धरातल पर आया यह पानी अभी भी काफी गरम है इसलिए इसे गरम पानी का झरना कहते हैं।

ऐसे झरनों में से एक मैंने अनहोनी में देखा जहां पानी का तापमान 50 डिग्री सेंटीग्रेड था। इसी तरह दुनिया भर में पाए जाने वाले ऐसे झरनों में पानी का तापमान 40 से 90 डिग्री सेंटीग्रेड तक हो सकता है। पानी का तापमान उष्मा स्रोत की गहराई, पानी की उपलब्धता आदि बातों पर निर्भर करता है।  
इस प्रकृति में बहुत विविधता और रोचकता है; इसलिए गरम पानी के झरनों वाली परिस्थितियों में थोड़ा बदलाव हो जाए तो आप गरम पानी के चश्मों के एक बदले हुए रूप - गीज़र का लुत्फ भी उठा सकते हैं।

गीजर में मुख्यतः होता यह है कि काफी सारा गर्म पानी, भाप व अन्य गैसें तेज आवाज़ के साथ धरातल से किसी छेद से होती हुई बाहर निकलती हैं। पानी की धार कुछेक मीटर से 100 मीटर तक उछलती है, बिल्कुल दीपावली में चलाए जाने वाले अनार की तरह। पानी की धार के उछाल को ही देखकर आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि नीचे गहराई में कितना भीषण दबाव बन रहा होगा।
थोड़ी देर के लिए विज्ञान-सिद्धांत को दरकिनार भी कर दें तो गीजर को देखना काफी सुखद लगता है। ऐसे गीजर दुनिया में येलोस्टोन नेशनल पार्क अमेरिका, आइसलैंड और न्यूज़ीलैंड में काफी तादाद में मिलते हैं और खूब सारे पर्यटक इस अद्भुत नज़ारे को देखने जाते हैं।

गीज़रः यदि हकीकत में गीजर देखना हो तो आइसलैंड, अमेरिका, न्यूजीलैंड, रूस जैसी जगहों पर जाना होगा जहां एक विशेष अंतराल के बाद फूटने वाले गीजर पाए जाते हैं। चित्र में आइसलैंड का एक गीज़र है जिसे देखने के लिए काफी संख्या में पर्यटक मौजूद हैं। वैसे यहां यह भी बता देना चाहिए कि न्यूज़ीलैंड में 'बायरोआ गीजर में पानी की धार किसी समय 60 मीटर की ऊंचाई तक उछलती थी लेकिन अब यह गीज़र तभी काम करती है जब गीज़र नली में साबुन का पानी डाला जाए। जब काफी पर्यटक वहां इकट्ठा हो जाते हैं तब इसकी गीज़र नली में साबुन का पानी उड़ेला जाता है और पर्यटक गीज़र का आनंद लुटते हैं।

गीज़र में एक और अनोखी बात यह है कि यह एक निश्चित समयावधि के बाद दुबारा पानी की धार को उछालता है। इसलिए एक मोटा-मोटा अंदाज तो लगाया जा सकता है कि अगली बार गीज़र में से पानी कब उछलेगा। वैसे उस क्षेत्र में होने वाली वर्षा तथा धरती के भीतरी परिवर्तनों की वजह से दो गीजर उछालों के बीच के अंतराल में बदलाव होता रहता है। साथ ही पानी की धार कितने मीटर तक उछलेगी इस पर भी प्रभाव पड़ता है। येलोस्टोन पार्क के सबसे मशहूर गीजर 'ओल्ड फेथफुल' की लगातार निगरानी से पता चला कि ओल्ड फेथफुल में दो विस्फोटों यानी फव्वारों के बीच की समयावधि 65 मिनट होती थी। अगस्त 1959 में मोंटाना (जो यहां से करीब है) में आए भूकंप से कुछ पहले यह समयावधि घटकर 60-62 मिनटों के बीच झूलती रही और भूकंप के बाद यह 68 मिनट तक पहुंच गई। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि जमीन के नीचे चल रही हलचलों से गीजर के समय अंतराल पर प्रभाव पड़ता है। इसी तरह यह भी देखा गया है कि ओल्ड फेथफुले में पानी की धार 115 फुट से 150 फुट की ऊंचाई तक उछलती है।

यहां तक आते-आते आपके दिमाग में भी यह सवाल कौंध रहा होगा कि वे कौन-सी परिस्थितियां हैं जो तय करती हैं कि किसी जगह विशेष पर गीज़र बनेगा या गरम पानी का चश्मा। गीजर और हॉट स्प्रिंग में प्रमुख अंतर यही है कि जहां हॉट स्प्रिंग में पानी सामान्य झरनों की तरह धरातल पर आता है; वहीं गीज़र में काफी दबाव और विस्फोट के साथ ऊंची धार फेंकते हुए निकलता है।
लगभग 100 साल पहले रॉबर्ट विलियम बुनसन ने गीजर के बारे में एक सिद्धांत पेश किया जिसे अभी भी मान्यता मिली हुई है। पानी का क्वथनांक, दाब बढ़ने के साथ-साथ बढ़ता जाता है और दबाव घटने पर क्वथनांक भी कम होता जाता है। उदाहरण के लिए समुद्र सतह पर हवा का दबाव 1 किलोग्राम/वर्ग सेमी होता है और पानी का क्वथनांक 100 डिग्री सेंटीग्रेड होता है। यदि धरती के भीतर 30 फुट की गहराई में जाएं तो वहां दबाव 2 किलोग्राम वर्ग सेमी होता है और पानी 120 डिग्री सेंटीग्रेड पर उबलता है।

यदि धरातल पर बहने वाला पानी रिसते हुए गहराई में चला जाए तो वहां दबाव के हिसाब से उसका उबाल बिन्दु भी प्रभावित होगा। अगर रिसता हुआ पानी मैग्मा या किसी गर्म चट्टान के सम्पर्क में आ जाए तब भी यह एकदम उबलने नहीं लगेगा।
हम सबने पढ़ा है कि पानी में संवहन चक्र बनने से पूरा पानी गर्म होता है यानी पहले नीचे का पानी गरम होता है, फिर यह गरम पानी ऊपर जाता है और ऊपर का ठंडा पानी नीचे आता है।

लेकिन धरती के अंदर चट्टानों के रवों के बीच की जगह या बेहद संकरी दरारों की मौजूदगी में इस तरह का संवहन चक्र बन पाना अक्सर खासा मुश्किल है। (यहां यदि हम गीज़र नली को एक सीधे कॉलम की तरह मानें तो समझने में सुविधा होगी) इसलिए पानी से भरी इन दरारों में नीचे का पानी बेहद गर्म हो जाती है लेकिन ऊपर का पानी ठंडा बना रहता है। नीचे के पानी पर ऊपरी पानी का काफी दबाव भी होता है जिससे नीचे के पानी का उबाल बिन्दु भी बढ़ जाता है। नीचे का पानी गर्म होते-होते अतितप्त हो जाता है। वहां बन रही भाप बाहर निकलने का रास्ता खोजने लगती है और आखिरकार तंग दरारों के पानी को ऊपर की ओर धकेलने की कोशिश करती है। इस दौरान ऊपरी हिस्से का पानी भी गरम होने लगता है। गरमी के कारण प्रसार और नीचे से लग रहे दबाव के फलस्वरूप पानी और भाप तेज़ आवाज़ और विस्फोट के साथ झटके से निकलना शुरू करते हैं। गीज़र नली में जितना अधिक दबाव बना होगा उस हिसाब से पानी की धार उछलती है।
एक बार पानी निकल जाने के बाद गीजर नली में दबाव कम हो जाता है। फिर से गीजर नली में रिसाव से पानी इकट्ठा होता है, पानी की निचली परत गरम होती है, और विस्फोट के साथ पानी बाहर निकल जाता है। यही क्रिया बार-बार दोहराई जाती है।

गीजर बनने के लिए तीन प्रमुख शर्तों का पूरी होना ज़रूरी है।
1. सतही चट्टानों के नीचे मैग्मा की मौजूदगी जो अपने आसपास की चट्टानों को पर्याप्त रूप से गरम कर दे।
2. सतही चट्टानों में पर्याप्त मात्रा में तंग, संकरी नलीनुमा दरारें हों।  इन नलियों की दीवार काफी मज़बूत हो, जो काफी दबाव सह सके।
3. गीज़र नली के निचले हिस्से तक पर्याप्त मात्रा में भूमिगत पानी पहुंच सके; ताकि भाप बन पाए, दबाव का निर्माण हो और गीजर पानी को ऊंचाई तक उछाल सके।
इन तीन शर्तों से आप इस बात को बखूबी समझ सकते हैं कि किन परिस्थितियों में हॉट स्प्रिंग बनेगा और कब गीजर।

मान लीजिए भूमिगत पानी काफी कम मात्रा में मैग्मा चैम्बर तक पहुंच पा रहा है। ऐसी स्थिति में पानी की जो भी मात्रा उष्मा के स्रोत तक पहुंच रही है वह तुरंत वाष्प में परिवर्तित

धुंआराः आइसलैंड काफी विरोधाभासों वाला देश है। एक ओर जहां इसका बड़ा भूभाग बर्फ से ढंका है वहीं ज्वालामुखीय हलचलों की भी कमी नहीं है। यहां हजारों गीज़र, गर्म पानी के चश्मे, धुंआरे बिखरे हुए हैं। चित्र में एक धुंआरा दिखाई दे रहा है। धरातल के एक छेद से पानी की भाप निकल रही है। आइसलैंड में ऊर्जा के इन स्रोतों का इस्तेमाल बिजली बनाने, मकानों को गर्म रखने, बागवानी करने जैसे कामों में किया जाता है।

हो जाएगी और दरारों से होती हुई किसी छेद के मार्फत बाहर निकल जाएगी। धरती की सतह पर ऐसे छेदों को धुंआरा (Fumarole) कहते हैं। ऐसे छेदों से भाप के अलावा कार्बन डाइ ऑक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड आदि गैसें भी निकलती रहती हैं।
एक दूसरी परिस्थिति में भूमिगत जल पर्याप्त मात्रा में नीचे पहुंच रहा है लेकिन उष्मा का स्रोत पानी को उबाल बिन्दु तक नहीं पहुंचा पा रहा है। या गीजर नली में बन रही भाप इतना दबाव नहीं बना पा रही हो कि पानी और भाप तेज़ आवाज़ और ऊंची धार के साथ बाहर निकल पाएं। तो ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि गर्म पानी का सोता या झरना बनेगा जिसमें से धरती की सतह पर सतत गरम पानी बहता रहता है।
इतनी चर्चा हो जाने के बाद यदि भूतापीय ऊर्जा की बात न हो तो बात कुछ अधूरी-सी लगती है। धरती के भीतर काफी उष्मा है लेकिन हमारी वर्तमान ड्रिलिंग तकनीक को देखते

कैलिफोर्निया की इस घाटी में 1960 के पहले सिर्फ प्राकृतिक गीजर ही देखे जा सकते थे लेकिन एक बार जब यह पता चला कि इन गीज़र से बिजली बनाई जा सकती है तो यहां बिजली बनाने वाली कम्पनियां टूट पड़ी। 1976 में इस इलाके से 500 मैगावाट बिजली का निर्माण हो रहा था तो 1990 तक इस उत्पादन क्षमता में 200 मैगावाट का इजाफा कर लिया गया था। जहां कभी समय-समय पर फूटने वाले गीजर होते थे वहां अब 24 घंटे भाप फेंकने वाले छेद और टरबाइन नजर आते हैं।

हुए धरती में गहराई तक छेद कर पाना संभव नहीं लगता। इसलिए यदि धरातल से काफी करीब कुछ मैग्मा चैम्बर या अति गर्म चट्टानों की मौजूदगी का पता चलता है तो इस ऊर्जा के दोहन की कोशिशें होने लगती हैं। हमारे पास भूतापीय ऊर्जा के रूप में भाप, गरम पानी और सूखी गर्म चट्टानें उपलब्ध हैं। इनसे भाप के जरिए बिजली का निर्माण किया जाता है। गरम पानी से बिजली बनाने की कोशिशों के साथ ठंडे इलाकों में मकानों को गरम रखने या बागवानी के लिए गरम वातावरण देने जैसे काम किए

भूतापीय ऊर्जा से बिजली बनाना: यहां 'A' एक मैग्मा चैम्बर है जो ठंडा हो रहा है। इस ठ होने की प्रक्रिया में वह अपनी उष्मा आसपास की चट्टानों को दे रहा है। इसके ठीक पास में 'B' चट्टान है जो काफी गर्म हो गई है। इस 'B' चट्टान के ठीक ऊपर एक पारगम्य परत 'c' है। इस परत में काफी सारा पानी है। इस पारगम्य परत का पानी गरमी पाकर उबलने लगा है। इसे पारगम्य परत के ऊपर अपारगम्य परत 'p' है जिसमें काफी सारी दरारें हैं। इन दरारों में से एक दरार 'E' से भाप और पानी सतह पर आता है जो गीज़र या हॉट स्प्रिंग ‘F' बनाता है।
अब इस पूरे तंत्र का अध्ययन करके 'G' से एक ड्रीलिंग करके गीज़र नली तक पहुंचा जाता है। यहां गर्म भाप को काबू में लेकर 'G' पर एक बिजली घर का निर्माण कर सकते हैं।

जाते हैं। सूखी गरम चट्टानों के इस्तेमाल के तरीके अभी विकसित हो रहे हैं लेकिन इसका इस्तेमाल भी बिजली बनाने में ही किया जा रहा है।
यदि हम इनको चलाने के तरीकों पर न भी जाएं तब भी यह तो कहे सकते हैं कि दुनिया में ऊर्जा स्रोतों के इस्तेमाल को लेकर जो वाद-विवाद चल रहे हैं उनमें भूतलीय ऊर्जा शायद एक बेहतर विकल्प बन पाए। लेकिन लाभ-हानि का गुणा-भाग तो आने वाला वक्त ही बताएगा।


संजय कुमार तिवारीः एकलव्य के सामाजिक अध्ययन कार्यक्रम में कार्यरत।