एड्स वायरस से बचाव के लिए टीके की खोज काफी समय से चल रही है मगर अब तक इसमें कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली है। इस बीच कुछ शोधकर्ताओं ने एक अलग तरीके का उपयोग किया है और उनका कहना है कि टीका खोजे जाने तक उनका तरीका कामचलाऊ उपाय हो सकता है।
यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिसीज़ेस के मालकोम मार्टिन के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन में कुछ बंदरों पर प्रयोग किए गए। किसी संक्रमित व्यक्ति से प्राप्त एंटीबॉडीस बंदरों को एड्स वायरस के संपर्क से 1-2 दिन पहले दी गई। एंटीबॉडीस प्रोटीन्स होते हैं जो शरीर को संक्रमणों से बचाने के लिए बनते हैं। देखा गया कि यदि बंदर के शरीर में कोई सुरक्षा प्रदान न की गई हो तो एड्स वायरस से 2-6 संपर्क के बाद ही उनके शरीर में वायरस का संक्रमण हो जाता है। मगर जब बंदरों को एंटीबॉडीस की एक खुराक दी गई तो उनके रक्त में रोगजनक की उपस्थिति 12 से 23 सप्ताह बाद देखने को मिली। असर काफी हद तक एंटीबॉडीस के प्रकार पर निर्भर रहा। यह भी देखा गया कि जैसे-जैसे शरीर में एंटीबॉडीस की मात्रा कम होती जाती है, बंदरों के एड्स संक्रमित होने की संभावना बढ़ती जाती है।
वैसे कई शोधकर्ताओं का मानना है कि बंदरों पर किए गए प्रयोगों के आधार पर यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि मनुष्यों पर इसके क्या असर होंगे मगर सभी यह मानते हैं कि इन प्रयोगों से एड्स के प्रसार को रोकने में एंटीबॉडीस के उपयोग की संभावना तो उजागर हुई है। कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि टीके की खोज होने तक यह एक अंतरिम उपाय हो सकता है।
शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि उन्होंने बंदरों का एड्स वायरस से संपर्क काफी ऊंची खुराक पर करवाया था। मनुष्यों में प्रत्येक संपर्क काफी कम खुराक से होता है। दूसरी बात यह है कि ये एंडीबॉडीस मनुष्यों से प्राप्त की गई थीं। इसलिए मनुष्यों में इनका उपयोग आसान होगा।
एक दिक्कत यह है कि एंटीबॉडीस प्राप्त करना बहुत महंगी प्रक्रिया है। इसके चलते एंटीबॉडीस और उनसे किया जाने वाला उपचार भी बहुत महंगा होगा। अब शोधकर्ताओं की कोशिश है कि विभिन्न एंटीबॉडीस का उपयोग करके तुलनात्मक परिणाम देखें। शायद एंटीबॉडीस के मिले-जुले उपयोग से ज़्यादा सुरक्षा मिले। (स्रोत फीचर्स)