सन 1985 में यह पता चला था कि अंटार्कटिक के ऊपर वायुमंडल में ओज़ोन का आवरण बहुत झीना पड़ गया है और इसकी वजह से सूरज से आने वाली पराबैंगनी यानी अल्ट्रावायलेट किरणें ज़्यादा मात्रा में पृथ्वी पर पहुंच रही हैं। ओज़ोन आवरण (जिसे ओज़ोन की छतरी भी कहा जाता है) का इस तरह पतला होना इस बात का प्रमाण था कि मनुष्यों ने अपने क्रियाकलाप से वायुमंडल को कितना नुकसान पहुंचाया है। मगर अब अच्छी खबर है कि ओज़ोन आवरण वापिस दुरुस्त हो रहा है।
दरअसल, कई सारे उपकरणों में क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सीएफसी) के उपयोग का परिणाम था कि यह पदार्थ वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में पहुंचने लगा था। सीएफसी ओज़ोन के विनाश का एक प्रमुख कारण था। शोधकर्ताओं ने बड़ी मुश्किल से इस बात के प्रमाण एकत्रित किए थे कि वास्तव में सीएफसी ही ओज़ोन आवरण के विनाश का ज़िम्मेदार है क्योंकि उद्योग जगत तो इस बात को मानने को कदापि तैयार नहीं था। काफी प्रमाण एकत्रित हो जाने पर वैज्ञानिकों की कोशिशों के फलस्वरूप मॉन्ट्रियल समझौता हुआ था। इसी मॉन्ट्रियल समझौते की बदौलत सीएफसी का उपयोग धीरे-धीरे कम होता गया।
सीएफसी और ओज़ोन की क्रिया काफी पेचीदा होती है। जाड़े के मौसम में नाइट्रिक अम्ल और पानी संघनित होकर बादल का रूप ले लेते हैं। इन बादलों की सतह पर क्रिया के चलते सीएफसी का विघटन होता है और क्लोरीन बनती है। यह क्लोरीन ओज़ोन से क्रिया करके उसे नष्ट करती है। मगर यह क्रिया सिर्फ प्रकाश की उपस्थिति में होती है। जाड़े के दिनों में तो अंटार्कटिका पर प्रकाश नहीं पहुंचता। मगर जैसे ही वसंत के आगमन के साथ वहां धूप आने लगती है तो ओज़ोन का नाश तेज़ी से होने लगता है। इसी वजह से अक्टूबर के महीने में सर्वाधिक नुकसान होता है और वैज्ञानिक ओज़ोन आवरण का अध्ययन इसी दौरान करते हैं।
एम.आई.टी. की मौसम वैज्ञानिक सुसन सोलोमन ने साइन्स में प्रकाशित अपने शोध पत्र में बताया है कि उन्होंने ओज़ोन के अध्ययन के लिए उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों, धरती पर किए गए मापन और मौसम सम्बंधी गुब्बारों से मिली जानकारी का उपयोग किया है। उन्होंने पाया कि 2000 के बाद से ओज़ोन छिद्र में 40 लाख वर्ग किलोमीटर की कमी आई है, जो भारत के क्षेत्रफल से बड़ा है।
अपने अध्ययन में उन्होंने यह भी पाया कि यह कमी वास्तव में रसायनों के घटे हुए उपयोग का ही परिणाम है। इसके लिए उन्होंने वायुमंडल का एक त्रि-आयामी मॉडल विकसित किया ताकि ओज़ोन छतरी को नुकसान पहुंचाने वाले अलग-अलग कारकों को अलग-अलग करके देख सकें। इसके आधार पर उनका निष्कर्ष है कि ओज़ोन आवरण में सुधार रसायनों का उपयोग घटने की वजह से ही हो रहा है। इससे पहले 2011 में किए गए अध्ययन में भी ओज़ोन आवरण की स्थिति में सुधार के संकेत मिले थे मगर तब यह तय नहीं हो पाया था कि सुधार की वजह क्या हो सकती है।
हालांकि अभी इस अध्ययन के निष्कर्षों पर वैज्ञानिकों के बीच विचार-विमर्श जारी है मगर इससे इतना तो स्पष्ट होता है कि वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर लिए गए राजनैतिक निर्णय कारगर हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)