डॉ. हरिनी नगेंद्र
इक्कीसवीं सदी को शहरी युग की संज्ञा दी जाती है। वर्ष 2050 तक दो-तिहाई मानवता भीड़-भाड़ वाले शहरी वातावरण में ठूंस जाएगी। 2014 में राष्ट्र संघ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक इस शहरी वृद्धि का 90 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा तो एशिया और अफ्रीका में होगा। और तो और, 37 प्रतिशत वृद्धि मात्र तीन देशों - भारत, चीन और नाइजीरिया - में होगी। अनुमान बताते हैं कि 2050 तक भारत के फैलते शहरों और कस्बों में 40.4 करोड़ और लोग शामिल हो जाएंगे। दुनिया के 10 सबसे बड़े शहरों में से तीन भारत में हैं - दिल्ली, मुंबई और कोलकाता। दुनिया के 10 सबसे तेज़ी से बढ़ते शहरों में से भी तीन भारत में हैं - गाज़ियाबाद, सूरत और फरीदाबाद।
शहरों की यह अभूतपूर्व वृद्धि अपने साथ कई पर्यावरणीय चुनौतियां भी लेकर आई है। शहरों में वायु प्रदूषण मृत्यु के एक प्रमुख कारण के रूप में उभरा है। मानसून के दौरान बस्तियों में पानी भर जाना भारतीय शहरों में आम बात है। हाल में यह समस्या बैंगलुरु, चेन्नै, गुड़गांव और मुंबई में काफी विकराल हो गई थी। शहरी कामकाज का सबसे स्पष्ट किंतु उपेक्षित लक्षण यह है कि जिन शहरों में मानसून के दौरान पानी भर जाता है, गर्मियों में उन्हीं शहरों में सूखे के हालात बन जाते हैं। इन शहरों में पानी की आपूर्ति काफी महंगी होती है: अधिकांश शहरों में पानी किसी दूरस्थ स्रोत से आता है और प्राय: इसे लिफ्ट करना पड़ता है। कई शहरों में पानी बोरवेलों से आता है। एक ओर तो शहर पानी, भोजन और ऊर्जा दूर-दूर से आयात करते हैं, वहीं अपना कचरा बाहर किसी भराव स्थल पर फेंकते हैं। इस तरह से वे ग्रामीण पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं।
तेज़ शहरीकरण के कारण होने वाली पर्यावरणीय समस्याओं के साथ जुड़कर जलवायु परिवर्तन भारत के लिए ऐसी कठिन चुनौतियां प्रस्तुत कर रहा है जिन्हें संभालना अगले कुछ दशकों में मुश्किल हो जाएगा। इसके चेतावनी संकेत मिलने भी लगे हैं - तटवर्ती शहर बाढ़ तथा तूफान (जैसे हाल ही में विशाखापट्नम में आया हुदहुद तूफान) जैसी समस्याओं के जोखिम झेल रहे हैं।
बारिश के विचित्र पैटर्न की वजह से देश के सूखाग्रस्त इलाकों से ‘जलवायु शरणार्थियों’ का शहरों की ओर पलायन बढ़ता जा रहा है। भारत के कई सारे शहर पानी का संकट झेल रहे हैं। इस वर्ष की शुरुआत में दक्षिण एशिया में अभूतपूर्व ग्रीष्म लहर का प्रकोप रहा जिसे मानसून में हुए विलंब, सीमेंट कांक्रीट के गर्म टापुओं, शहरी जलराशियों के सूखने तथा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई ने और गंभीर बना दिया।
शहरों में प्रकृति एक अहम भूमिका अदा करते हुए बाशिंदों को पर्यावरणीय क्षति के बदतरीन प्रभावों से बचाती है हालांकि इस भूमिका को पूरी तरह सराहा नहीं जाता है।
शहरी पारिस्थितिक तंत्र महत्वपूर्ण पर्यावरणीय सेवाएं प्रदान करता है - नमभूमियां प्रदूषण की सफाई करती हैं और घट रहे भूजल का पुनर्भरण करती हैं, और पेड़ वायु प्रदूषण कम करने में मददगार होते हैं। पारिस्थितिक तंत्र फल, चारा, जड़ी-बूटियां और जलाऊ लकड़ी उपलब्ध कराते हैं जो अधिकांश शहरी गरीबों के लिए जीवन निर्वाह तथा आजीविका के अहम स्रोत हैं। ये तनाव से राहत देने की महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक भूमिका भी निभाते हैं। और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि शहरी पारिस्थितिक तंत्र ऐसे सामाजिक स्थल उपलब्ध कराता है जहां लोग इकट्ठे होते हैं। इससे शहरी जीवन के सामाजिक विखंडन में कमी आती है और एक सुगठित समुदाय के निर्माण में मदद मिलती है। इन स्थलों पर सामाजिक बंधन मज़बूत होते हैं और खुशहाली का भाव पैदा होता है।
आम तौर पर इकॉलॉजीविदों ने शहरों की उपेक्षा की है, और अपना लगभग पूरा ध्यान ऐसे क्षेत्रों पर केंद्रित किया है जहां मानव उपस्थिति इतनी हावी नहीं है। शहर के अध्ययनकर्ताओं ने भी प्रकृति की भूमिका पर बहुत कम ध्यान दिया है। उनका ज़्यादा ध्यान वित्त, इन्फ्रास्ट्रक्चर और गरीबी पर रहा है। मगर तथ्य यह है कि इकॉलॉजी पर ध्यान दिए बगैर शहर ठीक से चल नहीं सकते। और यदि हम शेष दुनिया पर शहरों के असर को अनदेखा करेंगे, तो वैश्विक जैव विविधता बच नहीं सकती। उदाहरण के लिए, शहरों के विकास के साथ, संरक्षित क्षेत्रों के निकट (50 किलोमीटर से कम दूरी पर) शहरी भूमि की मात्रा में काफी वृद्धि हुई है।
यह हैरत की बात है कि शहर सम्बंधी नीतियों में शहरी पारिस्थितिक तंत्र और पर्यावरण पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। इसमें भी चर्चा मात्र नदियों की सफाई, सबके लिए शौचालय या पेड़ लगाने तक सीमित रहती है। यदि राजनैतिक इच्छाशक्ति और नीतिगत ध्यान पर्याप्त हों, जो फिलहाल नहीं हैं, तो भी हमारा ज्ञान अपर्याप्त है। मसलन, हम इस बारे में बहुत कम जानते हैं कि शहरों में लगाने के लिए प्रजातियों का चुनाव करने में पेड़ों के कौन-से गुण महत्वपूर्ण हैं, जहां विविध पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिए वृक्षों की कई भूमिकाओं की दरकार है। शहरी जलविज्ञान एक और क्षेत्र है जहां हमें ज्ञान विकसित करने की ज़रूरत है क्योंकि जो शहरी जलराशियां पहले वर्षा-पोषित मौसमी जलराशियां हुआ करती थीं, और भौगोलिक रूप से बदलती रहती थीं, वे अब बारहमासी, मल-जल से पोषित जलराशियां बन गई हैं जो भौगोलिक रूप से एक ही जगह स्थिर रहती हैं। ये तो मात्र दो उदाहरण हैं।
वास्तव में, शहरी इकॉलॉजिकल शोध अधिकांशत: उत्तरी अमेरिका और युरोप के शहरों पर केंद्रित रहा है और दक्षिण से सारे शहर ज्ञान की सीमाओं से ग्रस्त हैं। भारत इसका अपवाद नहीं है। ऐसे अनुसंधान की दिशाएं क्या होनी चाहिए? शहरी तंत्र जटिल, गतिशील और स्वभाव से बहु-आयामी होते हैं। दुनिया भर के शहरी इकॉलॉजीविदों के एक छोटे-से, मगर बढ़ते हुए समुदाय के शोध कार्य ने शहरी इकॉलॉजी और पर्यावरणीय शोध के कुछ अनिवार्य तत्व चिन्हित किए हैं।
पहला तत्व है बहु-विषयिता का। शहर जटिल इकाई होते हैं जहां इन्फ्रास्ट्रक्चर और टेक्नॉलॉजी का टकराव इतिहास और रूढ़ियों से होता है; आदर्श अधुनातन नीतियों को ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्थाओं में क्रियांवयन की चुनौती का सामना करना पड़ता है, जो अक्सर परिवर्तन का प्रतिरोध करती हैं। शहरी पर्यावरणीय अनुसंधान के लिए इकॉलॉजीविदों और अन्य विषयों - जैसे राजनीति विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान, रसायन, जलविज्ञान, इतिहास और समाज विज्ञान वगैरह - के साथियों के बीच सहयोग की ज़रूरत होती है। ऐसा होने पर ही शहरी पर्यावरण के मुद्दों की समग्र समझ हासिल हो पाएगी।
दूसरा तत्व है अंतर-विषयिता का। शहर जटिल सामाजिक-पारिस्थितिक तंत्र होते हैं, जहां मानव, प्रकृति और मानव-निर्मित व्यवस्थाओं के बीच सीमाएं पहचानना प्राय: मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, किसी शहर के जलविज्ञान को समझने के लिए यह समझना ज़रूरी होगा कि भवन निर्माण और खुदाई के कारण शहर के धरातल की बनावट किस तरह बदली है; बारिश के पैटर्न में बदलाव के कारण पानी का बहाव किस ढंग से बदला है और शहरी जलविज्ञान में मलजल का क्या योगदान है; और यह भी आकलन करना होगा कि घुसपैठी प्रजातियों के फैलाव तथा पेड़-पौधों की देशी प्रजातियों व मछलियों के गुम होने का जलराशियों के स्वयं को स्वच्छ करने की क्षमता पर क्या असर हुआ है। इसी प्रकार से शहरों में बार-बार फैलने वाली महामारियों (जैसे डेंगू) पर अनुसंधान के लिए कचरा निपटान की व्यवस्था, मच्छरों के जीवन चक्र, शहरी पशुधन, मनुष्यों के रोग से संपर्क में आने सम्बंधी व्यवहारगत पहलुओं, पोषण सम्बंधी असमानताओं, वर्षाजल दोहन व भंडारण के तरीकों, आवास के पैटर्न और हरित स्थानों व नमभूमियों के वितरण की जानकारी आवश्यक है। तभी हम इन महामारियों के नियंत्रण व प्रबंधन की लंबे समय की समुचित रणनीति बना पाएंगे।
बहु-विषयिता शहरी अध्ययनों में अंतर-विषयिता की एक पूर्व शर्त है। बहु-विषयी अनुसंधान के लिए पहले अनुसंधान के छोटे-छोटे खंड बनाए जा सकते हैं और उन्हें विशिष्ट समूहों को सौंपा जा सकता है। बाद में इन्हें मिलाकर निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। अंतरविषयी अनुसंधान के लिए ज़रूरी है कि विभिन्न पृष्ठभूमियों के वैज्ञानिक आपस में सहयोग करें ताकि विश्लेषण व व्याख्या के मिले-जुले तरीके और ढांचे बनाए जा सकें। बदकिस्मती से, अंतर-विषयी अनुसंधान के लिए वित्तपोषण बहुत सीमित है, हालांकि पिछले कुछ वर्षों में कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने इस दिशा में कदम आगे बढ़ाए हैं। भारत में, जहां सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानों के बीच सहयोग वैसे ही बहुत सीमित है, वहां विभिन्न वित्तपोषी संस्थाओं की रुचियों में स्पष्ट विभाजन चुनौती को और भी कठिन बना देता है।
तीसरा तत्व शायद सबसे चुनौतीपूर्ण है - विषयपारी अनुसंधान की ज़रूरत। यह समझना निश्चित रूप से गहरी वैज्ञानिक रुचि का विषय तो है ही कि शहरी और कस्बाई तंत्र किन बुनियादी पारिस्थितिक सिद्धांतों के तहत चलते हैं। किंतु यह व्यावहारिक महत्व का विषय भी है जहां अनुप्रयोग की ज़रूरत स्पष्ट है और अनुकूलनकारी हस्तक्षेप तथा सीखने के मौके बेशुमार हैं।
इसके लिए शहर नियोजकों, सामुदायिक संगठनों, सामाजिक रूप से सक्रिय समूहों, सिविल सोसायटी व हस्तक्षेप करने वाले अन्य समूहों, शोधकर्ताओं और अध्येताओं के बीच सहयोग की ज़रूरत है जो ज्ञान को कार्रवाई में परिणित करें। इसके अलावा कार्रवाई को प्रेरित करने तथा प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के लिए कवियों, लेखकों, कलाकारों और अन्य सृजनशील लोगों का सहयोग भी ज़रूरी होगा।
इसका एक अच्छा उदाहरण ‘दी नेचर ऑफ सिटीज़’ नामक आभासी मंच (virtual plateform) है जो दुनिया भर में ज्ञान को साझा करने का मंच है (www.thenatureofcities.com)। यह लगभग 500 पेशेवरों, वैज्ञानिकों, कलाकारों, इंजीनियरों, इकॉलॉजीविदों, समाज वैज्ञानिकों, वास्तुकारों, डिज़ायनरों, लैण्डस्केप वास्तुकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, शहरियों, उद्यमियों, सरकारी अधिकारियों का एक समुदाय है जो इकॉलॉजी की दृष्टि से निर्वाह-योग्य शहरों के बारे में विचार साझा करने के लिए आभासी गोलमेज़ सम्मेलन, ब्लॉग्स, फोटो-प्रदर्शनियों का आयोजन करते हैं।
इसी तरह का एक उदाहरण बैंगलुरु में झीलों के नवीनीकरण का है। इसमें स्थानीय सामुदायिक समूहों ने नगर निगम, इंजीनियर्स, वास्तुकारों, जलवैज्ञानिकों, प्रकृतिविदों और इकॉलॉजीविदों के साथ काम करके शहरी संदर्भ में झीलों के पुनरुद्धार के विज्ञान और तौर-तरीकों को लेकर नया विषयपारी ज्ञान विकसित किया। चुनौती इनके टिकाऊपन और इन्हें बड़े पैमाने पर लागू करने की है। विषयपारी प्रयास विविध समूहों के बीच परस्पर वि·ाास और एक साझा भाषा के विकास पर टिका होता है। इसके लिए लगातार समय, ऊर्जा और धन का निवेश करना होता है, जो मुश्किल होता है।
नया शहरी युग जलवायु परिवर्तन का भी युग है। आने वाले दशकों में भारत में अनुकूलन व लचीलेपन पर शहरों का काफी असर होगा। इन दशकों में प्रकृति जीवन के सर्वाधिक अनुकूलनकारी, सामाजिक रूप से समावेशी और इकॉलॉजी की दृष्टि से अकलमंद तरीके प्रदान कर सकती है, बशर्ते कि हम ध्यान दें। हमारी शहरी पर्यावरणीय व पारिस्थितिक चुनौतियों को संभालने के लिए देश की शोध क्षमताओं का विकास न सिर्फ मौजूदा शहरों को ज़्यादा स्वस्थ व जीने योग्य बनाने के लिए बल्कि विकास के वैकल्पिक मॉडल की तलाश के लिए भी ज़रूरी है। यह एक विशाल काम है जिसके लिए विविध विषयों के शोधकर्ताओं की एक बड़ी टीम की ज़रूरत होगी। (स्रोत फीचर्स)