भारत डोगरा
किसान का सबसे बड़ा मित्र कौन है? इस बारे में अनेक वैज्ञानिकों और बुज़ुर्ग किसानों की एक राय है कि किसान का सबसे बड़ा मित्र तो केंचुआ है। केंचुआ वह जीव है जो किसान से न तो कोई चारा मांगता है न कोई सेवा। वह तो निस्वार्थ भाव से दिन-रात अपनी दैनिक क्रियाओं से खेत की मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन बनाए रखता है।
इतने निस्वार्थ सेवक के महत्व को भी हमने नहीं पहचाना। मिट्टी में इतनी रासायनिक खाद व कीटनाशक, जंतुनाशक, खरपतवारनाशक के रूप में इतनी ज़हरीली दवाइयां डाल दीं कि केंचुए इसे सहन नहीं कर पाए व लुप्त होने लगे। एक ही गांव के खेतों में केंचुओं की संख्या जहां करोड़ों तक पहुंचती है वहां बहुत से खेत ऐसे हो गए हैं जहां की मिट्टी में केंचुए नहीं के बराबर हैं।
मिट्टी को भुरभुरा बना कर इसकी जल संरक्षण क्षमता को बढ़ाने वाला व अपनी दैनिक क्रियाओं से निरंतर मिट्टी को उपजाऊ बनाने वाला किसान का यह सबसे निस्वार्थ मित्र धीरे-धीरे उससे दूर हो गया।
जो योगदान केंचुए का रहा, वही मिट्टी में पनप रहे अनेक सूक्ष्म जीवों का रहा। जिन कारणों से केंचुए बहुत कम हुए, उन्हीं कारणों से ये सूक्ष्म जीव भी कम होते गए तथा इस कारण किसान की क्षति और बढ़ गई।
किसान के बहुत बड़े मित्र वे सभी कीट-पतंगे, पक्षी या अन्य जीव हैं जो परागण में मदद करते हैं। इनमें मधुमक्खी तो बहुत ही उपयोगी मानी गई है। परागण करवाने वाले ये सभी कीट-पतंगे व अन्य जीव भी तरह-तरह की ज़हरीली दवाइयों के छिड़काव के बाद तेज़ी से लुप्त होने लगे। विशेषकर जीएम या जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों (मुख्य रूप से बीटी कपास) के साथ कुछ ज़हरीली दवाइयांं आर्इं जिन्होंने मधुमक्खी जैसे बहुत उपयोगी जीवों पर तो जैसे कहर ही बरपा दिया।
इसके अतिरिक्त मधुमक्खियों की स्थानीय किस्मों के स्थान पर विदेशी किस्में लाने से भी समस्याएं बढ़ीं। युरोप से आने वाली मधुमक्खी को यहां इतनी गर्मी लगी कि फूल का पराग लेने बाहर जाने से घबराने लगीं व अपने छत्ते में ही बैठी रह गई। ऐसी विदेशी किस्मों को लाने की उल्टी-सीधी नीतियों के कारण भी बड़ी कुशलता व निष्ठा से परागण में लगी स्थानीय मधुमक्खियों की बहुत क्षति हुई।
परागण में मदद करने वाली सुन्दर तितलियों की संख्या कभी उनके शिकार के कारण, तो कभी ज़हरीली दवाओं के कारण पहले से काफी कम हुई है।
इसी तरह किसान के मित्र रहे कई पक्षी भी पहले से बहुत कम हुए हैं। हरियाली व वन कम होने का भी परागण पर प्रतिकूल असर पड़ा है। गौरतलब है कि परागण फसल उत्पादन की एक अनिवार्य शर्त है।
ये खेती-किसानी की क्षति करने वाले ऐसे पक्ष हैं जिनकी बहुत उपेक्षा हो रही है। खेती-किसानी के संकट की चर्चा प्राय: आर्थिक स्तर पर ही की जाती है। पर यदि ऐसे पर्यावरणीय पक्षों पर भी ध्यान दिया जाए तो खेती-किसानी को बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)