डॉ. अरविंद गुप्ते
यह तो सब जानते हैं कि पृथ्वी गोलाकार है। इसके ग्लोब पर काल्पनिक खड़ी और आड़ी रेखाएं खींची गई हैं ताकि किसी स्थान की सटीक जानकारी प्राप्त हो सके। आड़ी रेखाओं को अक्षांश और खड़ी रेखाओं को देशांतर कहते हैं। भूमध्य रेखा को, जहां पृथ्वी का व्यास सबसे अधिक है, 0° अक्षांश कहा जाता है। अक्षांश को नापना आसान है क्योंकि भूमध्य रेखा को आधार (0° अक्षांश) मान कर दोनों ध्रुवों को 90° अक्षांश कहा जाता है। बीच के स्थानों को 90 बराबर भागों यानी अंशों में बांटा जाता है। कुल मिला कर उत्तर और दक्षिण ध्रुव के बीच की दूरी को 180 अंशों में बांटा गया है - 90 अंश भूमध्य रेखा के उत्तर में और 90 अंश भूमध्य रेखा के दक्षिण में।
देशांतर को नापना बहुत मुश्किल है क्योंकि इसके लिए भूमध्य रेखा के समान कोई प्राकृतिक चिंहक नहीं है। अत: प्रमुख देशांतर रेखा (0° देशांतर) को मनमाने ढंग से नक्शे पर खींचा जाता है। यह पृथ्वी को दो बराबर गोलार्धों (पूर्वी और पश्चिमी) में बांटती है। चूंकि पृथ्वी गोलाकार है, उसके नक्शे पर 360 देशांतर रेखाएं खींची गई हैं। किंतु 0° देशांतर किसे कहा जाए? इसे लेकर बहुत मतभेद रहे हैं। हर देश मानता था कि उसके भूभाग से गुज़रने वाली रेखा ही 0° देशांतर है। आज से लगभग 2200 वर्ष पूर्व महान खगोलशास्त्री और नक्शानवीस टोलेमी ने प्रमुख देशांतर रेखा को अफ्रीका के समीप स्थित कैनरी और मैडीरा द्वीपों के बीच से गुज़रता हुआ दिखाया था। किंतु बाद में अलग-अलग नक्शानवीसों ने इसे रोम, कोपनहेगन, जेरुसलेम, सेन्ट पीटर्सबर्ग, पीसा, पेरिस और फिलाडेल्फिया से गुज़रता हुआ दिखाया। अंत में (शायद समुद्र पर ब्रिाटेन के वर्चस्व के कारण) यह मान लिया गया कि लंदन की ग्रीनविच वेधशाला में खींची गई उत्तर-दक्षिण रेखा ही प्रमुख देशांतर रेखा है।
फिर भी, समुद्र में जहाज़ की स्थिति पता करने के लिए यह ज़रूरी था कि हर जहाज़ के नाविक अक्षांश और देशांतर रेखाओं की गणना करके अपनी स्थिति जान सकें। सूर्य और तारों की स्थिति से अक्षांश रेखा का पता करना आसान है किंतु देशांतर रेखाओं की गणना करने के लिए यह ज़रूरी था कि जहाज़ पर दो घडि़यां हों - एक उस बंदरगाह का समय बताने वाली और दूसरी उस स्थान का समय बताने वाली जहां जहाज़ अब स्थित है। उस समय पेन्डुलम घडि़यों का इस्तेमाल किया जाता था किंतु इनके साथ यह समस्या थी कि लहरों से जहाज़ के हिलने के कारण पेन्डुलम का दोलन अस्त-व्यस्त हो जाता था और वे सही समय नहीं बता पाती थीं।
मध्य युग में युरोप के कई देशों ने एशिया और अफ्रीका के देशों पर हमले करके उन पर अपना अधिकार जमा लिया और उनके संसाधन लूटकर अपने देशों में भेज दिए। इसके लिए उन्हें ज़रूरत थी जहाज़ों को सही दिशा में चलाने की और इसके लिए सही देशांतर नापने की। सारे यूरोपीय देश एक ऐसे उपकरण की खोज में जुट गए जो इस समस्या को हल कर सकें। लंदन, पेरिस और बर्लिन में इस पर शोध करने के लिए आलीशान प्रयोगशालाएं बनाई गर्इं। उस समय के महानतम खगोलशास्त्री गैलीलियो, ह्रूजेंस, न्यूटन, डोमिनिक, हेली, केसिनी आदि इस पहेली को हल करने में जुट गए, किंतु वे चांद-तारों की गति में उलझ कर रह गए।
ब्रिाटिश सरकार ने इस समस्या का हल खोजने वाले को 20,000 पौंड का इनाम घोषित किया। आज यह राशि भले ही 14-15 लाख रुपयों के बराबर हो लेकिन 400 वर्षों पहले यह अकूत सम्पत्ति के बराबर थी। ब्रिाटेन के यॉर्कशायर इलाके में एक सुतार रहता था जिसका नाम जॉन हैरिसन था। कम पढ़ा-लिखा होने के बावजूद उसे घड़ियां बनाने और सुधारने का जुनून था। उसने किसी घड़ीसाज़ से प्रशिक्षण भी नहीं लिया था। उसने ऐसी घड़ी बनाने का बीड़ा उठाया जो कितना भी हिलने-डुलने के बावजूद सही समय बताती थी। उसने एक के बाद एक पांच मॉडल बनाए जो पेन्डुलम आधारित नहीं थे और हर मॉडल पहले से बेहतर था। किंतु ब्रिाटेन के बड़े खगोल शास्त्रियों को यह बात बिलकुल रास नहीं आई कि जो काम महान वैज्ञानिक नहीं कर सके उसे एक साधारण मिस्त्री ने कर दिखाया। उन्होंने हैरिसन को प्रताडि़त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और इनाम मिलने की राह में रोड़े अटकाए। अंतत: ब्रिाटेन के राजा जॉर्ज तृतीय (जो स्वयं विज्ञान के जानकार थे), के हस्तक्षेप से हैरिसन को ज़िन्दगी के अंतिम क्षणों में न्याय मिल पाया।
लेखिका डावा सोबल ने हैरिसन के संघर्ष का इस पुस्तक (लॉन्गिट्यूड) में बहुत सुंदर ढंग से विवरण दिया है। इस पुस्तक को एक बार पढ़ना शुरू करने पर पूरा किए बिना छोड़ने की इच्छा नहीं होती। (स्रोत फीचर्स)