रातों के अंधकार को दूर करना टेक्नॉलॉजी का एक प्रमुख योगदान रहा है। आज हम कृत्रिम रोशनी के बगैर जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। मगर रोशन रातों के हमारे प्रेम ने काफी गहरी परछाइयां पैदा की हैं - ऊर्जा का अपव्यय, इकोसिस्टम्स की तबाही और कभी-कभी मानव स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़। हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट दी न्यू वर्ल्ड एटलस ऑफ आर्टिफिशियल नाइट स्काय ब्राइटनेस ने उजागर किया है कि इसी प्रकाश ने तारों और निहारिकाओं के हमारे नज़रिए को भी धुंधला कर दिया है।
यह एटलस एनओएए-नासा के सुओमी ध्रुवीय उपग्रह से प्राप्त हज़ारों तस्वीरों की मदद से तैयार किया गया है। एटलस के मुताबिक तीन में से एक धरतीवासी को आकाशगंगा के दर्शन नहीं होते। यूएस जैसे विकसित देशों में यह प्रतिशत और भी ज़्यादा है। सिंगापुर, दक्षिणी कोरिया और कतर जैसे अत्यधिक प्रकाश प्रदूषण से ग्रस्त देशों के लोगों को तो रात में तारे नज़र ही नहीं आते। उनकी रातें तो कृत्रिम उजाले में ही बीतती हैं। यदि समुद्रों और वीरान ध्रुवीय प्रदेशों को छोड़ दें, तो कुदरती अंधकारमय आसमान तो चाड, पपुआ न्यू गिनी और मैडागास्कर जैसे दूर-दराज़ के इलाकों में ही उपलब्ध है और वह भी सिकुड़ रहा है।
एटलस के अनुसार अभी बीस वर्ष पहले तक प्रकाश प्रदूषण सिर्फ खगोल शास्त्रियों के लिए दिक्कत पेश करता था। आज यह एक वैश्विक पर्यावरणीय समस्या बन गया है। एटलस के प्रमुख रचयिता हैं इटली के एक हाई स्कूल शिक्षक फेबियो फाल्ची। वे कहते हैं कि “तारों भरा आसमान आपकी आत्मा को छू जाता है। हमारी सभ्यता का धर्म, दर्शन, कला और साहित्य सबकी जड़ें आकाश के हमारे नज़रियों में हैं और हम इसे गंवा रहे हैं।”
प्रकाश प्रदूषण के कुछ प्रभाव तो स्पष्ट ही हैं। जैसे खगोल शास्त्रियों की चिड़चिड़ाहट या पैदा होने के बाद नवजात समुद्री कछुओं का गलत दिशा में चल पड़ना वगैरह। मगर कई असर ऐसे हैं जिन्हें हम भलीभांति समझते नहीं हैं। जैसे रातों में रोशनी होने का निशाचर प्राणियों और रात में शिकार करने वाले प्राणियों पर क्या असर होता होगा। इंसानों पर इसके असर को लेकर समझ भी बहुत साफ नहीं है। 2007 में विश्व स्वास्थ्य संगठन और 2012 में अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन ने वक्तव्य जारी करके आगाह किया था कि रात में देर तक रोशनी से संपर्क से कतिपय कैंसरों का जोखिम बढ़ता है। इसका कारण शायद यह है कि रात में रोशनी के संपर्क से हमारी दैनिक घड़ी गड़बड़ा जाती है और इसका असर हारमोन के स्तर पर पड़ता है।
सबसे बड़ी दिक्कत तो यह है कि कोई नहीं जानता कि समस्या कितनी गंभीर है। उपग्रह तस्वीरों के आधार पर यह गणना आसानी से की जा सकती है कि रात में विभिन्न क्षेत्रों में प्रकाश का स्तर कितना है मगर इसके आधार पर यह गणना करना बहुत कठिन होता है कि इसकी वजह से आसमान में कितनी रोशनी फैलती है। एटलस टीम ने उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों को वायुमंडल के एक मॉडल से गुज़ारकर गणना की कि सिर के ठीक ऊपर खुले आसमान में कितनी रोशनी पहुंचेगी। इसके आधार पर उन्होंने पूरे आसमान के लिए गणना की। एकदम अंधेरे आसमान की तुलना में 1 प्रतिशत अधिक चमक को उन्होंने प्रकाश प्रदूषण की कसौटी माना। यूएस नेशनल पार्क सेवा के डैन डुरिस्को का कहना है कि 1 प्रतिशत का यह अंतर हमारी कल्पना से ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है। जब दुनिया की कुल जीव प्रजातियों में से आधी से ज़्यादा निशाचर हों तो यह चमक कहीं ज़्यादा गड़बड़ी पैदा कर सकती है। और यदि आसमान में बादल हों, तो यह प्रभाव कहीं ज़्यादा हो सकता है।
इंसानों के संदर्भ में देखें, तो एटलस के मुताबिक सबसे चिंताजनक बात यह है कि घर से बाहर की प्रकाश व्यवस्था में सामान्य बल्बों की अपेक्षा एलईडी का उपयोग बढ़ रहा है। एलईडी ऊर्जा की दृष्टि से बहुत कार्यक्षम होते हैं और इनके उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है। इनकी एक बड़ी दिक्कत यह है कि इनका अधिकांश प्रकाश नीले-सफेद की रेंज में होता है। धरती का वायुमंडल नीले प्रकाश को सबसे ज़्यादा बिखेरता है। इसलिए एलईडी के प्रकाश से आसमानी चमक के बहुत बढ़ने की आशंका है। थॉमस जेफरसन विश्वविद्यालय के प्रकाश-जीव वैज्ञानिक जॉर्ज ब्रेनार्ड का कहना है कि मनुष्य की आंखें पीले और हरे प्रकाश के प्रति ज़्यादा संवेदनशील होती है। ऐसे में एलईडी से उत्पन्न नीला प्रकाश किस तरह के असर डालेगा, कहना मुश्किल है। एटलस के लेखकों का आग्रह है कि इस संदर्भ में और अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)