संयुक्त राज्य अमेरिका में बहुसंख्य-अल्पसंख्यक अवधारणा ज़ोर पकड़ रही है। इसका मतलब यह होता है कि देश की बहुसंख्यक आबादी के मन में डर बैठ गया है कि वे अल्पसंख्यक होने जा रहे हैं। इसके क्या परिणाम हैं, इसे लेकर हाल ही में नॉर्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय की जेनिफर रिचेसन ने एक साक्षात्कार में चर्चा की। यहां प्रस्तुत है उस चर्चा का सार। रिचेसन पूर्वाग्रहों, रूढ़ छवि निर्माण और समूह के परस्पर सम्बंधों पर शोध कार्य करती हैं।
सबसे पहले तो उन्होंने स्पष्ट किया कि बहुसंख्य-अल्पसंख्यक की धारणा क्या है। उनके मुताबिक यूएस में मीडिया में इस बात को बढ़ते क्रम में बयान किया जा रहा है कि देश में नस्लीय अनुपात में परिवर्तन आ रहा है जिसकी वजह से यूएस शीघ्र ही एक बहुसंख्य-अल्पसंख्यक राष्ट्र में तबदील हो जाएगा। यदि आप सारे नस्लीय-जनजातीय समूहों - लेटिनो, देशज अमरीकी, बहु-जनजातीय व्यक्तियों - को जोड़ दें तो 2045 के आसपास उनकी संख्या कुल जनसंख्या में से 50.1 प्रतिशत हो जाएगी। यानी गोरे लोग ‘अल्पसंख्यक’ हो जाएंगे।
सवाल है कि लोग इस जानकारी पर क्या प्रतिक्रिया दे रहे हैं। रिचेसन का कहना है कि जब उन्होंने पहली बार बदलती जनांकिकी की रिपोर्टें चारों ओर देखीं तो उन्हें लगा कि पता नहीं इसे लेकर इतना हो-हल्ला क्यों है। उन्हें लगा कि संभवत: लोग इसे मात्र इस दृष्टि से नहीं देख रहे हैं ‘कितनी दिलचस्प बात है।’ इस सूचना को जिस अंदाज़ में पेश किया जा रहा है, वह है कि तुम गोरे लोग बहुसंख्य होने के अभ्यस्त हो, अब तुम अल्पसंख्यक होने जा रहे हो। इस तरह का प्रस्तुतीकरण अजीबोगरीब प्रतिक्रिया पैदा कर सकता है।
तो रिचेसन व उनके साथियों ने कुछ गोरे अमरीकियों से कहा कि वे बदलती जनांकिकी के बारे में लेख पढ़ें जो तथाकथित बहुसंख्य-अल्पसंख्यक स्थिति की ओर इशारा कर रहे हैं। इसी दौरान उन्होंने कुछ लोगों को जनांकिकी के कुछ अन्य पहलुओं के बारे में पढ़ने को कहा। बाद में देखा गया कि प्रथम समूह ने विभिन्न नस्लीय समूहों - जैसे अश्वेत, लेटिनो, एशियाई अमरीकियों - के बारे में ज़्यादा नकारात्मक रवैये का प्रदर्शन किया। मगर यह तो हुई एक कृत्रिम परिस्थिति में किए गए ‘प्रयोग’ की बात। वास्तविक परिस्थिति में इसका क्या प्रभाव दिखेगा?
रिचेसन का मत है कि जब यूएस के मोहल्ले नस्लीय रूप से ज़्यादा विविधतापूर्ण होने लगते हैं, तो इस बात के प्रमाण हैं कि इस बदलाव के साथ नकारात्मक रवैये भी बढ़ते हैं। और उल्टा भी होता है। जब कोई मोहल्ला कम विविधतापूर्ण हो जाता है तो गोरे लोग नस्लीय दृष्टि से वाकई ज़्यादा सहिष्णु हो जाते हैं। मगर लगता है कि यह रवैया सिर्फ गोरे अमरीकियों में ही नहीं दिखता। लोगों को जब अपने रुतबे (जैसे नस्लीय बहुसंख्यक होने का रुतबा) के ह्रास का अंदेशा होता है जिसे वे भयजनक मानते हैं, तो नस्लीय द्वैष पैदा होता है।
तो क्या बहुसंख्य-अल्पसंख्यक की बात सुनकर अन्य चीज़ें भी बदलती हैं? दरअसल, जब अमरीकियों ने नस्लीय बनावट में परिवर्तन के बारे में सुना तो उनकी एक प्रतिक्रिया गौरतलब थी। इसे सुनने के बाद वे राजनैतिक रूप से ज़्यादा अनुदार नीतियों को समर्थन देने को तैयार थे। आरक्षण और आप्रवास जैसे नस्ल-सम्बंधी मुद्दों के अलावा यह बात अन्य मुद्दों में भी झलकती है - जैसे अलास्का के वन्यजीव अभयारण्य में जीवाश्म ईंधन के लिए खुदाई।
और ऐसे असर अश्वेत व एशियाई अमरीकियों में भी नज़र आए हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप इसी तरह की बहुसंख्य-अल्पसंख्यक बदलाव की जानकारी अश्वेत अमरीकियों को दें - जिसमें लेटिनो लोगों की आबादी में वृद्धि को रेखांकित किया गया हो - तो अश्वेत अमरीकी भी अनुदार रवैये की ओर बढ़ते हैं। बात को स्पष्ट करते हुए रिचेसन ने बताया कि ये प्रभाव सिर्फ गोरे लोगों में नहीं दिख रहे हैं और इन प्रभावों के दिखने का कारण यह नहीं कि लोग नस्लभेदी होते हैं। इसका सम्बंध रुतबे को खोने का भय है। यह मनोवैज्ञानिक स्तर पर डर पैदा करता है और इस डर से निपटने का तरीका होता है कि ज़्यादा अनुदार बनो।
जब यह पूछा गया कि इसका भावी राजनीति पर क्या असर होगा और आज राजनीति में इसका इस्तेमाल किस तरह किया जा रहा है, तो रिचेसन का कहना था कि मीडिया में मत व्यक्त किया जा रहा है कि बदलती जनसंख्या रिपब्लिकन पार्टी को निर्रथक बना देगी। डेमोक्रेट उम्मीदवार बराक ओबामा अश्वेत, लेटिनो और एशियाई अमरीकियों के दम पर जीते थे। दलील यह दी जाती है कि यदि देश में इन लोगों का प्रतिशत बढ़ रहा है, तो ज़ाहिर है कि डेमोक्रेटिक पार्टी सदा जीतेगी और रिपब्लिकन पार्टी का तो बेड़ा गर्क हो जाएगा। और रिपब्लिकन सचमुच इस तर्क के जाल में फंस गए। कई वरिष्ठ रिपब्लिकन नेता यह कहते सुने जाते हैं, “समस्या यह है कि हम बूढ़े, गोरे लोगों की पार्टी बनते जा रहे हैं।”
मगर रिचेसन के मुताबिक यह सोच थोड़ा अपरिपक्व है। हो सकता है कि डेमोक्रेट्स को बहुत सारे नए अल्पसंख्यक मतदाताओं का समर्थन मिले मगर साथ ही वे गोरे मतदाताओं से हाथ धो बैठेंगे। यह भी संभव है कि रिपब्लिकन गोरे लोगों की पार्टी बन जाए और डेमोक्रेट अश्वेत लोगों की। और यह सब होगा गोरे अमरीकियों में रुतबा गंवाने के डर के एहसास की वजह से।
यह पूछा जाने पर कि क्या डोनाल्ड ट्रम्प (रिपब्लिकन उम्मीदवार) डर के इस एहसास का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो रिचेसन का कहना था कि दक्षिणी कैरोलिना में एक सर्वेक्षण में देखा गया कि ट्रम्प के कई समर्थक धार्मिक व नस्लीय असहिष्णु मत का समर्थन करते हैं - जैसे यूएस में समलैंगिक लोगों पर प्रतिबंध, या मुस्लिमों पर प्रतिबंध, यूएस-मेक्सिको की सीमा पर विशाल दीवार का निर्माण और अपंजीकृत आप्रवासियों का निष्कासन। इनमें से कई रुझान संभवत: बदलती जनांकिकी की प्रतिक्रिया है और शायद उसके साथ लोग आर्थिक नुकसान का खतरा भी देख रहे हैं।
यह भी सवाल उठा कि आखिर यह सब कहां तक जाएगा। रिचेसन ने बताया कि कई गोरे अमरीकियों को लगने लगा है कि उनके साथ नस्लीय अल्पसंख्यकों से भी ज़्यादा भेदभाव हो रहा है। इस माहौल में जब बहुसंख्य-अल्पसंख्यक के अंदाज़ में जनसंख्या सम्बंधी आंकड़े पेश किए जाते हैं तो आम गोरा अमरीकी कहता है, “हम तो अल्पसंख्यक हो जाएंगे और उसका मतलब होगा और ज़्यादा भेदभाव।”
जब जानकारी को इस ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, तो ऐसी चिंता पैदा होना अस्वाभाविक नहीं है मगर यथार्थ को, देखते हुए यह उचित नहीं है। गोरे अमरीकी आज भी किसी भी अन्य समूह के मुकाबले सबसे बड़े समूह हैं और हम जानते हैं कि आज भी वही नस्लीय असमानताएं - संपदा के वितरण, शिक्षा, स्वास्थ्य वगैरह में - मौजूद हैं जो 50 साल पहले थीं। अर्थात नस्लीय जनांकिकी में परिवर्तन वास्तविक लाभ-हानियों में स्थिरता से मेल नहीं खाता। और इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि यह बदलने वाला है।
जब यह बात लोगों को बताई जाती है तो क्या असर होता है? इस सवाल के जवाब में रिचेसन ने बताया कि कई अध्ययनों में सहभागियों को याद दिलाया जाता है कि गोरे अमरीकियों के पास आम तौर पर ज़्यादा संपदा है, बेहतर नौकरियां हैं और बेहतर शिक्षा है। अत: यूएस का नस्लीय अनुपात बदल जाने के बाद भी उनकी स्थिति बेहतर बनी रहेगी। यह जानकर गोरे अमरीकियों का डर कुछ हद तक कम होता है और वे कम पूर्वाग्रह और अनुदारता का प्रदर्शन करते हैं। आगे बढ़ने के लिए एक तो हमें इस बहुसंख्य-अल्पसंख्यक बदलाव की बातें ‘हम और वे’ के परिप्रेक्ष्य में करना बंद करना होगा। मगर हमें यह तो स्वीकार करना होगा यूएस की जनांकिकी में उतार-चढ़ाव होते हैं और ये उतार-चढ़ाव भय पैदा कर रहे हैं। एक प्रजातंत्र में यह खतरनाक है क्योंकि मुद्दा तो अल्पसंख्यकों को समान अवसरों और सुरक्षा का है। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - August 2016
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