हाल ही में चूहों पर किए गए प्रयोगों के आधार पर सेलफोन और कैंसर के आपसी सम्बंधों को लेकर कुछ प्रारंभिक निष्कर्ष सामने आए हैं। क्रिस्टोफर पोर्टियर और वेंडी लियोनार्ड ने उस रिपोर्ट के प्रमुख अंश प्रस्तुत किए हैं।
यूएसए में रोग नियंत्रण केंद्र द्वारा नेशनल टॉक्सिकॉलॉजी कार्यक्रम के तहत सेलफोन के स्वास्थ्य सम्बंधी खतरों का एक दो-वर्षीय अध्ययन किया गया था। इसमें यूएस दूरसंचार उद्योग द्वारा उपयोग किए जा रहे विशिष्ट रेडियो फ्रिक्वेंसी और मॉड्यूलेशन्स को शामिल किया गया है।
इस अध्ययन में पता चला है कि सेलफोन से संपर्क की वजह से मस्तिष्क के मेलिग्नेंट ग्लिओमा अर्थात मस्तिष्क कैंसर के प्रकोप में वृद्धि होती है। इसके अलावा हृदय में न्यूरोमा (श्वानोमा) का प्रकोप भी बढ़ता है। देखा जाए तो न्यूरोमा कैंसर नहीं होते मगर ये तंत्रिकाओं के सुरक्षा आवरण को प्रभावित कर सकते हैं जो कष्टदायक हो सकता है।
ग्लिओमा और न्यूरोमा में वृद्धि बहुत कम (3-4 प्रतिशत) ही थी मगर ऐसे ट्यूमर्स बहुत बिरले होते हैं, इसलिए यह वृद्धि चिंताजनक है। ये निष्कर्ष ज़्यादा चिंताजनक इसलिए भी हैं क्योंकि ऐसे ही परिणाम इंसानों पर किए गए अध्ययनों में भी देखे गए हैं।
इंसानों में रेडियो फ्रिक्वेंसी से संपर्क और कैंसर के कई अध्ययन हुए हैं। 2010 से पहले किए गए सारे अध्ययनों में ऐसा कोई सम्बंध नहीं देखा गया था। मगर यह कहा जा सकता है कि उस समय तक कैंसर को पर्याप्त विकसित होने का समय ही नहीं मिला था। 2010 के बाद किए गए तीन अध्ययनों में सेलफोन से सर्वाधिक संपर्क वाले लोगों में ग्लिओमा में वृद्धि देखी गई। दो अध्ययनों में यह भी पता चला था कि कैंसर मस्तिष्क के उसी तरफ होता है जिस तरफ सेलफोन का उपयोग किया जाता है। मगर इन अध्ययनों में लोगों की याददाश्त पर भरोसा किया गया था - उन्हें याद करके बताना था कि उन्होंने सेलफोन का कितना उपयोग किया था।
एक अध्ययन में तुलनात्मक जोखिम काफी ज़्यादा पाया गया था। इससे संकेत मिलता है कि आम आबादी में भी ग्लिओमा के मामले बढ़ने चाहिए। इस बात का अध्ययन कई देशों में किया गया है और नतीजे मिश्रित और कई बार विवादास्पद रहे हैं।
सेलफोन के असर को समझने के लिए कुछ ऐसे लोगों पर भी अध्ययन किए गए हैं, जिन्हें ट्यूमर नहीं था और फिर लंबे समय बाद देखा गया कि क्या उनमें कैंसर का जोखिम बढ़ता है। इन्हें कोहर्ट अध्ययन कहते हैं। ऐसे सारे अध्ययनों के परिणाम नकारात्मक रहे हैं। इनमें से कई अध्ययनों में प्रक्रिया सम्बंधी खामियां भी रहीं।
इन आंकड़ों के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय कैंसर अनुसंधान एजेंसी ने निष्कर्ष निकाला कि सेलफोन की वजह से मनुष्यों में ग्लिओमा होने के प्रमाण बहुत ही कम हैं। यानी हो सकता है कि कुछ सह-सम्बंध हो मगर कार्य-कारण सम्बंध स्थापित नहीं होता।
कानों में न्यूरोमा के अध्ययनों की भी यही स्थिति रही है। सर्वोच्च संपर्क वाले व्यक्तियों में कर्ण-न्यूरोमा के प्रकोप में वृद्धि देखी गई है।
नेशनल टॉक्सिकोलॉजिकल कार्यक्रम (एनटीपी) द्वारा किए गए अध्ययन को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। एनटीपी अध्ययन एक विशेष किस्म के चूहों में कैंसर बायो-असे पर आधारित है। इससे पहले किए गए सारे अध्ययनों के परिणाम नकारात्मक रहे हैं। मगर उन सारे अध्ययनों में या तो संपर्क की अवधि या तीव्रता बहुत कम थी और चूहों की किस्में भी अलग-अलग थीं और यह जानी-मानी बात है कि अलग-अलग किस्म के चूहे पर्यावरणीय कारकों के प्रति अलग-अलग प्रतिक्रिया देते हैं।
कुल मिलाकर एनटीपी अध्ययन बताता है कि चूहों में सेलफोन से संपर्क की वजह से कैंसर का खतरा बढ़ता है। मगर इस अध्ययन की आलोचना भी हुई है। पहली बात तो यह है कि इस अध्ययन में तुलना के लिए जो चूहे इस्तेमाल किए गए थे (सेलफोन से अ-संपर्क) उनमें से एक को भी ट्यूमर नहीं हुआ। आलोचकों का कहना है कि यह आश्चर्यजनक है। दूसरी समस्या यह है कि सेलफोन से संपर्क के बाद कैंसर सिर्फ नर चूहों में देखे गए, एक भी मादा चूहे में कैंसर पैदा नहीं हुआ।
इन अध्ययनों से तो लगता है कि लंबी अवधि तक, अत्यधिक तीव्रता वाले सेलफोन से संपर्क और कैंसर का कुछ सम्बंध है। मगर यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि एनटीपी अध्ययन में चूहों-चूहों में अंतर देखे गए हैं। तो यह मानना लाज़मी है कि चूहों और मनुष्यों में तो बहुत अंतर होते होंगे। (स्रोत फीचर्स)