एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में भोजन में जो विविधता पहले पाई जाती थी वह लगातार कम होती जा रही है। कोलिन खोरे व उनके साथियों की यह रिपोर्ट ‘इंक्रीसिंग होमोजेनेटी इन ग्लोबल फूड सप्लाइज़ एंड इट्स इम्प्लीकेशन्स फॉर फूड सिक्योरिटी’ प्रोसीडिंग्स ऑफ दी यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ में मार्च में प्रकाशित हुई है।
रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि 1961 में दूर-दराज़ के देशों के लोग काफी अलग-अलग किस्म की फसलों का उपभोग करते थे। 1985 आते-आते दुनिया भर में पाई जाने वाली यह विविधता काफी कम हो चुकी थी। और 2009 में तो देशों के भोजन बहुत हद तक एकरूप हो चुके हैं। इन 50 वर्षों के दौरान भोजन में अंतर 68 प्रतिशत कम हुए।
उदाहरण के लिए पहले भी भोजन में गेहूं का बोलबाला था मगर पिछले 50 वर्षों में यह और भी बढ़ गया है। इसी प्रकार से सोयाबीन, पाम तेल और सूरजमुखी जैसे तिलहनों का वर्चस्व भी बढ़ा है।
यह एकरूपता कई गौण फसलों की कीमत पर आई है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर के खोरे का कहना है कि लोग आजकल ज़्यादा मात्रा में प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों का उपभोग कर रहे हैं और ये खाद्य पदार्थ बहुत थोड़े-से घटकों से ही बनाए जाते हैं। इसके अलावा भोजन को भाप में पकाने की बजाय तेल में तलने का चलन भी बढ़ा है।
यह सही है कि इन परिवर्तनों की वजह से कैलोरी में जो वृद्धि हुई है, वह कई क्षेत्रों में ज़रूरी थी मगर इसके साथ ही मोटापा, डायबिटीज़ और हृदय रोग भी दुनिया भर में बढ़े हैं।
इस तरह की एकरूपता के साथ एक चिंता यह जुड़ी है कि यदि सूखे अथवा किसी रोग के प्रकोप के चलते एक फसल नाकाम रहती है, तो खाद्यान्न की कीमतें आसमान छूने लगती हैं और साथ ही दुनिया भर में उपलब्धता पर भी असर पड़ता है। खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से भी यह स्थिति चिंताजनक है।
यहां दिए गए चित्र में देखा जा सकता है कि कैसे कुछ खाद्य वस्तुओं की खपत तेज़ी से बढ़ी है जबकि कुछ अन्य वस्तुओं की खपत में तेज़ी से कमी आई है। (स्रोत फीचर्स)