भूगर्भ वैज्ञानिक रुओयू सुन और उनके साथियों का विचार है कि उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जो युद्ध समुद्रों में लड़े गए उनके निशान मूंगा चट्टानों में देखने को मिलते हैं। जैसे प्रथम अफीम युद्ध के दौरान 7 जनवरी 1841 के दिन ब्रिटेन के जंगी जहाज नेमेसिस ने एक चीनी जहाज़ को रॉकेट से ध्वस्त किया था। यह चीन व ब्रिटेन के बीच व्यापार को लेकर युद्ध का नतीजा था। इस विस्फोटक ने दक्षिण चीन सागर में विषैली पारा धातु की मात्रा में बहुत इज़ाफा किया होगा। सुन और उनके साथी जानना चाहते थे कि क्या समुद्र में पारे की बढ़ी हुई मात्रा को वहां पनपने वाले मूंगों ने सोखा होगा।
मूंगों के कंकाल कैल्शियम कार्बोनेट के एक खनिज एरागोनाइट से बनते हैं। जब यह जीव वृद्धि करता है तो लगातार समुद्र से कैल्शियम लेकर अपने कंकाल में जोड़ता जाता है। पेड़ों में जिस तरह वार्षिक छल्ले होते हैं, उसी प्रकार से मूंगों में भी वार्षिक पट्टियां होती हैं जिनके आधार पर किसी मूंगा चट्टान की उम्र बताई जा सकती है। सुन और उनके साथियों का विचार था कि प्रत्येक पट्टी जिस साल बनी होगी, उसमें उस साल समुद्र के पानी के संघटन की छाप मिलनी चाहिए।
जांच करने के लिए उन्होंने दक्षिण चीन सागर के एक मूंगा पोराइटस ल्यूटिया (Porites lutea) के कंकाल में से 200 वर्ष पुराना केंद्रीय भाग निकाला। उनका विचार था कि इसका संघटन वर्ष दर वर्ष बदलता रहेगा और उससे बदलते समुद्री पर्यावरण की जानकारी मिलेगी। और यही हुआ भी।
चट्टान का जो भाग 1800 से 1830 के बीच का था उसमें पारे की मात्रा कम थी और लगभग स्थिर रही। मगर उसके अगले 170 सालों में चट्टान में पारे की मात्रा में कम से कम 12 बार उछाल देखे गए। और रोचक बात यह थी कि ये उछाल हर बार चीन के निकट हुए संघर्षों से मेल खाते थे। इन टकरावों में प्रथम अफीम युद्ध (1839-1842), दूसरा अफीम युद्ध (1856-1860) और द्वितीय विश्व युद्ध शामिल हैं। एन्वायरमेंटल साइन्स एंड टेक्नॉलॉजी के ताज़ा अंक में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि वैसे तो पारे का स्तर पूरी बीसवीं सदी में बढ़ता रहा है मगर बीच-बीच के उछाल बहुत अलग नज़र आते हैं।
पारे का उपयोग हथियार और विस्फोटक बनाने में होता है और उनके फूटने से पारा हवा में पहुंच जाता है। हवा में यह पारा अन्य क्रियाशील पदार्थों के साथ क्रिया करके समुद्र में बैठ जाता है। एक बार समुद्र के पानी में पहुंच जाए, तो मूंगे अपनी वृद्धि के लिए इसका उपयोग कर लेते हैं जो उनकी चट्टानों में नज़र आता है।
वैसे कई शोधकर्ता सुन के निष्कर्षों को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। एक मत यह है कि पारे का इतना स्थानीय तथा तत्काल असर देखना मुश्किल है। इस शंका को निर्मूल करने के लिए सुन अब मूंगा चट्टानों में पारे के विभिन्न समस्थानिकों की तुलना करना चाहते हैं क्योंकि विभिन्न स्रोतों से प्राप्त पारे में समस्थानिकों का अनुपात अलग-अलग होता है। गौरतलब है कि समस्थानिक एक ही तत्व के परमाणु होते हैं जिनके परमाणु भार थोड़े अलग-अलग होते हैं। (स्रोत फीचर्स)