काले-सफेद चितकबरे पतंगे या पेपर्ड मॉथ जीव वैज्ञानिकों के बीच प्राकृतिक चयन के उम्दा उदाहरण के रूप में मशहूर रहे हैं। अब इस कथा में एक नया मोड़ आया है।
1848 में मैनचेस्टर में पहली बार एक काले रंग का पेपर्ड पतंगा देखा गया था। इससे पहले वहां सिर्फ हल्के रंग के पतंगे पाए जाते थे। जल्दी ही ये काले वाले पतंगे चारों ओर नज़र आने लगे और हल्के रंग वाले पतंगे गायब हो गए। ऐसा क्यों हुआ? परिकल्पना यह सामने आई थी कि मैनचेस्टर में दोनों तरह के पतंगे मौजूद थे। जब वहां प्रदूषण नहीं फैला था तब वहां के पेड़ों के तने हल्के रंग के थे। इन तनों पर पतंगे बैठते थे तो पक्षियों को काले वाले पतंगे ज़्यादा आसानी से दिखाई देते थे और पक्षी इन्हें पकड़कर खा जाते थे। हल्के रंग वाले पतंगे हल्के रंग वाले तनों पर दिखाई नहीं देते थे और बच जाते थे। इसलिए हल्के रंग वाले पतंगे बहुतायत में मिलते थे।
धीरे-धीरे औद्योगीकरण हुआ और चिमनियां धुआं उगलने लगीं। खदानों से भी खूब धूल उड़कर तनों पर जमने लगी। धुएं और धूल ने मिलकर ऐसी कयामत ढाई कि पेड़ या तो नष्ट हो गए या उनके तने काले पड़ गए। अब हल्के रंग वाले पतंगे ज़्यादा पकड़े और खाए जाने लगे जबकि काले रंग के पतंगे पक्षियों के लिए ओझल हो गए।
पांसा फिर पलटा और औद्योगीकरण का दबाव कम हुआ। एक बार फिर हवा साफ हो गई, तनों का रंग अपनी पुरानी उजली रंगत पर लौट गया। एक बार फिर पतंगों की आबादी का रंग बदला। यह पूरी कहानी पाठ्य पुस्तकों में बताई जाती है और बताया जाता है कि यह हमारी आंखों के सामने प्राकृतिक चयन का नज़ारा प्रस्तुत करती है।
वैसे वैज्ञानिक के बीच इस कथा की बारीकियों पर बरसों से तकरार जारी है। जैसे इस बात का क्या प्रमाण है कि पक्षी पतंगों का चयन रंग देखकर ही करते थे। विवाद का एक मुद्दा यह था कि काले रंग वाले पतंगों के लिए ज़िम्मेदार जीन कौन-सा है। काफी मशक्कत के बाद 13 जीन वाला एक हिस्सा पहचाना गया है मगर इनमें से एक भी जीन पंखों के रंग का निर्धारण नहीं करता। अलबत्ता, खोज रुकी नहीं और हाल ही में एक जीन पहचान लिया गया है जिसका नाम है कॉर्टेक्स और यह ड्रॉसोफिला नामक मक्खी में भी पाया जाता है मगर उसमें यह पंखों के रंग का निर्धारण नहीं करता। शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि इस जीन में एक जंपिंग जीन जुड़ गया है और इसकी भूमिका बदल गई है। परिणाम यह हुआ है कि पतंगे के विकास की उस अवधि में यह जीन ज़्यादा सक्रिय होकर प्रोटीन बनाता है जब पंखों का विकास हो रहा होता है। यानी कॉर्टेक्स जीन पंखों के विकास में शामिल है।
कॉर्टेक्स कुछ तितलियों के पंखों के रंग में भूमिका निभाता है। मज़ेदार बात यह है कि पतंगों और तितलियों में पंखों के रंग का निर्धारण उन पर मौजूद शल्कों के घनत्व, आकार, सतह के गुणधर्मों पर निर्भर करता है। इसलिए पंखों के विकास के दौरान शल्कों में होने वाले परिवर्तन रंग का निर्धारण करते हैं।
अर्थात हो सकता है कि पुरानी परिकल्पना सही हो कि गाढ़े रंग वाले पतंगे हमेशा से मौजूद थे और परिवेश बदलने पर उनकी आबादी बढ़ गई मगर शायद यह भी हो सकता है कि हाल ही में इन पतंगों में कोई जेनेटिक परिवर्तन हुआ और दो अलग-अलग रंग वाले पतंगे दिखने लगे। वैसे परिवेश सुधरने पर वापिस हल्के रंग वाले पतंगों की तादाद बढ़ने का इतना मतलब तो है ही कि प्राकृतिक चयन की कुछ भूमिका ज़रूर है। (स्रोत फीचर्स)